सारी मुश्किल इस बात से आती है कि तुम किसी के साथ तब तक सामञ्जस्य नहीं कर सकते जब तक कि वह तुम्हारे अपने विचारों के साथ सहमत न हो और उसकी राय और उसके काम करने का तरीका तुम्हारे तरीके से मेल न खाता हो। तुम्हें अपनी चेतना को विस्तृत करना चाहिये और यह समझना चाहिये कि हर एक का अपना ही सिद्धान्त होता है । व्यक्तिगत इच्छाओं के सुखद संयोजन में समझ और सामञ्जस्य की भूमि खोजना जरूरी है न कि यह कोशिश करना कि सभी की इच्छाएं और कर्म एक जैसे हों ।
सन्दर्भ : माताजी के वचन (भाग – २)
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…