सामुदायिक जीवन में अनिवार्य रूप से अनुशासन होना चाहिये ताकि मजबूत कमजोर के साथ दुर्व्यवहार न कर सके; और जो भी उस समुदाय में रहना चाहते हों तो उन सबको इस अनुशासन का मान करना चाहिये।
लेकिन समाज के सुखी होने के लिये यह जरूरी है कि यह अनुशासन किसी ऐसे के द्वारा या ऐसे लोगों के द्वारा निर्धारित किया जाये जिनमें मन की अधिकतम विशालता हो, अगर संभव हो तो ऐसे व्यक्ति या ऐसे मनुष्यों के द्वारा जो भागवत परम उपस्थिति के प्रति सचेतन हैं और उसे
समर्पित हैं।
धरती के सुखी होने के लिये शक्ति को केवल ऐसे लोगों के हाथों में होना चाहिये जो भागवत इच्छा के प्रति सचेतन हैं। लेकिन अभी तो यह असंभव है क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है जो सचमुच भागवत इच्छा के बारे में सचेतन हैं और इनमें अनिवार्य रूप से कोई महत्त्वाकांक्षा
नहीं होती।
सच तो यह है कि जब इस उपलब्धि का समय आयेगा तो यह बिलकुल स्वाभाविक रूप से आ जायेगी।
हर एक का कर्तव्य है कि अपने-आपको उसके लिये यथासंभव पूर्ण रूप से तैयार करे।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-१)
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