कारावास का पहला दिन शान्ति से कट गया। सभी कुछ था नया, इससे मन में स्फूर्ति जगी। लालबाज़ार की हवालात से तुलना करने पर इस अवस्था में भी प्रसन्नता हुई और भगवान् पर निर्भर था इसलिए यहाँ निर्जनता भी भारी नहीं पड़ी। जेल के खाने की अद्भुत सूरत देख कर भी इस भाव में कोई व्याघात नहीं पड़ा। मोटा भात, उसमें भी भूसी, कंकड़, कीडा, बाल आदि कितने तरह के मसालों से पूर्ण स्वादहीन दाल में जल का अंश ही अधिक, तरकारी में निरा घास-पात का साग। मनुष्य का खाना इतना स्वादहीन और निस्सार हो सकता है यह पहले नहीं जानता था। साग की यह विषण्ण गाढ़ी कृष्ण मूर्ति देख कर ही डर गया, दो ही ग्रास खा उसे भक्तिपूर्ण नमस्कार कर एक ओर सरका दिया। सब कैदियों के भाग्य में एक ही तरकारी बदी थी, और एक बार कोई तरकारी शुरू हो जाये तो अनन्त काल तक वही चलती थी। उस समय साग का राज्य था। दिन बीते, पखवारे बीते, माह बीते किन्तु दोनों समय वही साग, वही दाल, वही भात। चीजें तो क्या बदलनी थीं, रूप में भी क़तई परिवर्तन नहीं होता था, उसका वही नित्य, सनातन, अनाद्यनन्त, अपरिणामातीत अद्वितीय रूप! दो दिन में ही कैदी में इस नश्वर माया-जगत् के स्थायित्व पर विश्वास जनमने लगेगा। इसमें भी अन्य कैदियों की अपेक्षा मैं भाग्यशाली रहा, यह भी डाक्टर बाबू की दया से। उन्होंने हस्पताल से मेरे लिए दूध की व्यवस्था की थी, इससे कुछ दिन के लिए साग-दर्शन से मुक्ति मिली।
उस रात जल्दी ही सो गया; किन्तु निश्चिन्त निद्रा निर्जन कारावास का नियम नहीं, उससे कैदियों की सुखप्रियता जग सकती है। इसीलिए नियम है कि जितनी बार पहरा बदले उतनी बार कैदी को हाँक मार कर उठाया जाता है और हुंकारा न भरने तक छोड़ते नहीं। जो-जो छह डिक्री का पहरा देते थे उनमें से बहुत-से इस कर्तव्य-पालन से विमुख थे,–सिपाहियों में प्रायः ही कठोर कर्तव्य-ज्ञान की अपेक्षा दया और सहानुभूति अधिक थी, विशेषतः हिन्दुस्तानियों के स्वभाव में। किन्तु कुछ लोगों ने नहीं बख़्शा
वे हमें इस तरह जगा यह कुशल संवाद पूछते : “बाबू, ठीक हैं तो?” यह असमय का हँसी-मज़ाक सदा नहीं सुहाता पर समझ गया था कि जो ऐसा करते हैं वे सरल भाव से नियमवश ही हमें उठाते हैं। कई दिन विरक्त होते हुए भी इसे सह गया। अन्ततः, निद्रा की रक्षा के लिए धमकी देनी पड़ी। दो-चार बार धमकाने के बाद देखा कि रात को कुशल-क्षेम पूछने की प्रथा अपने-आप ही उठ गयी।
संदर्भ : कारावास की कहानी
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