मैं तुम्हारे साथ हूं


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

मैं तुम्हारे साथ हूं क्योंकि मैं तुम हूं या तुम में हो ।

मैं तुम्हारे साथ हूं , इसके बहुत सारे अर्थ होते हैं , क्योंकि में सभी स्तरों पर , सभी भूमिकाओं में , परम चेतना से लेकर मेरी अत्यन्त भौतिक चेतना तक में तुम्हारे साथ हूं । यहां , पॉण्डिचेरी में , तुम मेरी चेतना को अन्दर लिये बिना श्वास भी नहीं ले सकते । वह सूक्ष्म भौतिक में सारे वातावरण को लगभग भौतिक रूप में भरे हए है , और यहां से दस किलोमीटर दूर झील तक ऐसा है । उसके आगे , मेरी चेतना को भौतिक प्राण में अनुभव किया जा सकता है , उसके बाद मानसिक स्तर पर तथा अन्य उच्चतर स्तरों पर हर जगह । जब मैं यहां पहली बार आयी थी तो , मैंने भौतिक रूप से दस किलोमीटर नहीं , दस समुद्री मील की दूरी से श्रीअरविन्द के वातावरण का अनुभव किया था । वह एकदम अचानक , बहुत ठोस रूप में , एक शुद्ध , प्रकाशमय , हलका , ऊपर उठाने वाला वातावरण था ।

बहुत समय पहले श्रीअरविन्द ने आश्रम में हर जगह यह अनुस्मारक लगवा दिया था जिसे तुम सब जानते हो : ” हमेशा ऐसे व्यवहार करो मानों माताजी तुम्हें देख रही हैं , क्योंकि , वास्तव में , वे हमेशा उपस्थित हैं । ”

यह केवल एक वचन नहीं है , कुछ शब्द नहीं हैं , यह एक तथ्य है । मैं तुम्हारे साथ बहुत ठोस रूप में हूं और जिनमें सूक्ष्म दृष्टि है वे मुझे देख सकते हैं। सामान्य रीति से मेरी ‘ शक्ति ‘ हर जगह कार्यरत है , वह हमेशा तुम्हारी सत्ता के मनोवैज्ञानिक तत्त्वों को इधर – उधर हटाती और नये रूप में रखती तथा तुम्हारे सामने तुम्हारी चेतना के नये – नये रूपों को निरूपित करती रहती है ताकि तुम देख सको कि क्या – क्या बदलना , विकसित करना या त्यागना है । . . .

सच तो यह है कि मैं अपने – आपको हर एक के लिए जिम्मेदार मानती हूं , उनके लिए भी जिनसे मैं अपने जीवन में बस निमिषमात्र के लिए ही मिली हूं ।

यहां एक बात याद रखो । श्रीअरविन्द और मैं एक ही हैं , एक ही चेतना हैं , एक और अभिन्न व्यक्ति हैं । हां , जब यह शक्ति या यह उपस्थिति , जो एक ही है , तुम्हारी वैयक्तिक चेतना में से गुजरती है , तो वह एक रूप , एक आभास धारण कर लेती है जो तुम्हारे स्वभाव , तुम्हारी अभीप्सा . तुम्हारी आवश्यकता , तम्हारी सत्ता के विशेष मोड़ के अनुसार होता है । तुम्हारी वैयक्तिक चेतना , यह कहा जा सकता है , एक छन्ने या एक सूचक की तरह होती है जो अनन्त दिव्य सम्भावनाओं में से एक सम्भावना को चुन कर दृढ़ कर लेती है । वस्तुतः , भगवान् हर एक व्यक्ति को ठीक वही चीज देते हैं जिसकी वह उनसे आशा करता है । अगर तुम यह मानते हो कि भगवान् बहुत दूर और क्रूर हैं , तो वे बहुत दूर और क्रूर होंगे , क्योंकि तुम्हारे चरम कल्याण के लिए यह जरूरी होगा कि तुम भगवान् के कोप का अनुभव करो ; काली के पुजारियों के लिए वे काली होंगे और भक्तों के लिए ‘परमानन्द’ और ज्ञानपिपासु के लिए वे ‘सर्वज्ञान’ होंगे , मायावादियों के लिए परात्पर ‘ निर्गुण ब्रह्म ‘ ; नास्तिक के साथ वे नास्तिक होंगे और प्रेमी के लिए प्रेम । जो उन्हें हर क्षण , हर गति के आन्तरिक मार्गदर्शक के रूप में अनुभव करते हैं उनके लिए वे बन्धु और सखा , हमेशा सहायता करने के लिए तैयार , हमेशा वफादार दोस्त रहेंगे । और अगर तुम यह मानो कि वे सब कुछ मिटा सकते हैं , तो वे तुम्हारे सभी दोषों , तुम्हारी सभी भ्रान्तियों को , बिना थके , मिटा देंगे , और तुम हर क्षण उनकी अनन्त ‘ कृपा ‘ का अनुभव कर सकोगे । वस्तुत : भगवान् वही हैं जो तुम अपनी गहरी – से – गहरी अभीप्सा में उनसे आशा करते हो ।

और जब तुम उस चेतना में प्रवेश करते हो जहां तम सभी चीजों को एक ही दृष्टि में देख सको , मनुष्य और भगवान् के बीच सम्बन्धों की अनन्त बहुलता को देख सको , तो तुम देखते हो कि यह सब अपने पूरे विस्तार में कैसा अद्भुत है । अगर तुम मानवजाति के इतिहास को देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि मनुष्यों ने जो समझा है , उन्होंने जिसकी इच्छा और आशा की है , जिसका स्वप्न लिया है , उसके अनुसार भगवान् कितने विकसित हुए हैं । वे किस तरह जड़वादी के साथ जड़वादी रहे हैं और हर रोज किस तरह बढ़ते जाते हैं , और जैसे – जैसे मानव चेतना अपने – आपको विस्तृत करती रहती है वे भी दिन – प्रतिदिन निकटतर और अधिक प्रकाशमान होते जाते हैं । हर एक चुनाव करने के लिए स्वतन्त्र है । सारे संसार के इतिहास में मनुष्य और भगवान के सम्बन्ध की इस अनन्त विविधता की । पूर्णता एक अकथनीय चमत्कार है । और यह सब मिला कर भगवान् की । समग्र अभिव्यक्ति के एक क्षण के समान है ।

भगवान् तुम्हारी अभीप्सा के अनुसार तुम्हारे साथ हैं । स्वभावतः , इसका यह अर्थ नहीं है कि वे तुम्हारी बाह्य प्रकृति की सनकों के आगे झुकते हैं , – यहां में तुम्हारी सत्ता के सत्य की बात कह रही हूं । और फिर भी , कभी – कभी भगवान् अपने – आपको तुम्हारी बाहरी अभीप्सा के अनुसार गढ़ते हैं , और अगर तुम , भक्तों की तरह , बारी – बारी से मिलन और बिछोह में , आनन्द की पुलक और निराशा में रहते हो , तो भगवान् भी तुमसे , तुम्हारी मान्यता के अनुसार , बिछुड़ेंगे और मिलेंगे । इस भांति मनोभाव , बाहरी मनोभाव भी , बहुत महत्त्वपूर्ण है । लोग यह नहीं जानते कि श्रद्धा कितनी महत्त्वपूर्ण है , श्रद्धा चमत्कार है , चमत्कारों को जन्म देने वाली है ।

अगर तुम यह आशा करते हो कि हर क्षण तुम्हें ऊपर उठाया जाये और भगवान् की ओर खींचा जाये , तो वे तुम्हें उठाने आयेंगे और वे बहुत निकट , निकटतर , अधिकाधिक निकट होंगे ।

संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-१)


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