हमेशा स्थिर और शांत रहने के लिए बहुत सावधान रहो और सम्पूर्ण समचित्ता को आधिकाधिक पूर्णता के साथ अपनी सत्ता में प्रतिष्ठित होने दो। अपने मन को बहुत ज्यादा सक्रिय होकर हो-हल्ले और विक्षोभ में न रहने दो, चीजों के ऊपरी आभास से ही परिणामों तक न जा पहुँचो। जल्दबाज़ी न करो , एकाग्र होकर स्थिरता में ही निश्चय करो ।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-३)
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…