१. पूरा-पूरा आत्म-संयम, केवल इतना ही नहीं कि अपना क्रोध न दिखलाओ, बल्कि सभी परिस्थितियों में पूरी तरह शान्त. स्थिर और अविचल बने रहना।
२. आत्मविश्वास के मामले में, अपने महत्त्व को सापेक्षता का भी भान होना चाहिये।
सबसे बढ़ कर, यह ज्ञान होना चाहिये कि अगर अध्यापक चाहता है कि उसके विद्यार्थी प्रगति करें तो स्वयं उसे भी हमेशा प्रगति करनी चाहिये। उसे कभी भी वह जो है या वह जितना जानता है उससे सन्तुष्ट न होना चाहिये।
३. अध्यापक में अपने विद्यार्थियों से मूलभूत श्रेष्ठता का भाव न होना चाहिये और न ही उनमें से किसी के लिए वरीयता या आसक्ति।
४. उसे यह मालूम होना चाहिये कि आध्यात्मिक दृष्टि से सब समान हैं और उसके अन्दर केवल सहिष्णुता ही नहीं, व्यापक बोध और समझ होनी चाहिये।
५. “अध्यापक और माता-पिता दोनों का यह काम है कि बच्चे को अपने-आपको शिक्षित करने योग्य बनायें और इसमें सकी मदद करें, उसे अपनी बौद्धिक, नैतिक, सौन्दर्य-बोधात्मक और व्यावहारिक क्षमताओं को विकसित करने और एक मूलभूत सत्ता के रूप में खुले तौर पर विकसित होने में मदद दें जिसे जड़ लोचदार पदार्थ की तरह कोई आकार देने के लिए गूंधने या दबाने की ज़रूरत नहीं।”
संदर्भ : शिक्षा के ऊपर
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…