हमेशा भगवान् की उपस्थिति में ही निवास करो इस अनुभूति में रहो कि यह उपस्थिति ही तुम्हारी प्रत्येक क्रिया को गति देती है और जो कुछ तुम करते हो उसे वही कर रही है। अपने सभी क्रिया-कलापों को इसी को समर्पित कर दो, केवल प्रत्येक मानसिक क्रिया, विचार और भाव को ही नहीं, बल्कि अत्यन्त साधारण और बाह्य क्रियाओं को भी, उदाहरणार्थ, भोजन भी उसी को अर्पित कर दो; जब भोजन करो तो तुम्हें अनुभव होना चाहिये कि इस क्रिया में तुम्हारे द्वारा भगवान् ही भोजन कर रहे हैं।
पूर्णयोग में पूरे ब्योरे के साथ सम्पूर्ण जीवन का रूपान्तर करना होगा, उसे दिव्य बनाना होगा। यहां कोई चीज नगण्य या तुच्छ नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते : “जब में ध्यान करता हूं, दर्शनशास्त्र-सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ता हूं या इस वार्तालाप को सुनता हूं तब तो मैं भागवत ज्योति की ओर खुलने और उसे बुलाने की अवस्था में रहूंगा। किन्तु जब मैं टहलने जाऊं या किसी मित्र से मिलूं तब में इन बातों को भुला सकता हूं।” …
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…