मैं हमेशा यह सलाह देती हूं कि एक बार में थोड़ा-सा पढ़ो, मन को जितना शांत रख सकते हो रखो, समझने की कोशिश न करो, दिमाग को जहां तक हो सके मौन रखो, और जो तुम पढ़ रहे हो उसमें जो शक्ति है उसे अपने अंदर गहराई में प्रवेश करने दो। शांत-स्थिरता और नीरवता में ग्रहण की गयी यह शक्ति अपनी ज्योति का काम करेगी और, अगर जरूरत हुई तो, मस्तिष्क में इसे समझने के लिये आवश्यक कोषाणु पैदा करेगी। इस तरह, जब तुम उसी चीज को कुछ महीनों के बाद दोबारा पढ़ते हो तो तुम्हें लगता है कि उसमें व्यक्त किया गया विचार बहुत ज्यादा स्पष्ट और निकट, और कभी-कभी बहुत परिचित हो गया है।
सन्दर्भ : शिक्षा के ऊपर
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मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…