… इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमारे अन्दर ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये जिसे कोई भी बौद्धिक सन्देह विचलित न कर सके, श्रद्धावान् लभते ज्ञानम, “जिस अज्ञानी में श्रद्धा नहीं है, जो संशयात्मा है वह नाश को प्राप्त होता है: संशयात्मा के लिए न तो यह लोक है न परलोक, और न सुख।” वास्तव में यह बिलकुल सच है कि श्रद्धा-विश्वास के बिना इस जगत् में या परलोक की प्राप्ति में कोई भी निश्चित स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती; और जब कोई मनुष्य किसी सुनिश्चित आधार और वास्तविक सहारे को पकड़ पाता है तभी किसी परिमाण में लौकिक या पारलौकिक सफलता, सन्तोष और सुख को प्राप्त कर सकता है। जो मन केवल संशयग्रस्त है वह अपने-आपको शुन्य में खो देता है। परन्तु फिर भी निम्नतर ज्ञान में सन्देह और अविश्वास होने का एक तात्कालिक उपयोग है; किन्तु उच्चतर ज्ञान में ये रास्ते के रोड़े हैं.
क्योंकि वहां का सारा रहस्य बौद्धिक भूमिका की तरह सत्य और भ्रान्ति का सन्तुलन करना नहीं है, वहां तो स्वतःप्रकाशमान सत्य की सतत-प्रगतिशील अनुभूति होती रहती है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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