शारीरिक भावना के साथ बंधे हुए मानसिक और प्राणिक अहं की रचना ही वैश्व प्राण का, अपने क्रमिक विकास में, सर्वप्रथम और महान् प्रयास था; क्योंकि जड़तत्त्व में से सचेतन व्यक्ति को उत्पन्न करने का जो साधन उसने ढूंढ निकाला वह यही था। इस सीमाकारी अहं का विलय कर
देना ही वह एकमात्र शर्त एवं आवश्यक साधन है जिसके द्वारा स्वयं यह वैश्व प्राण अपनी दिव्य परिणति प्राप्त कर सकता है। क्योंकि केवल इसी तरीके से सचेतन व्यक्ति अपने परात्पर आत्म-स्वरूप या सच्चे पुरुष को उपलब्ध कर सकता है।
संदर्भ : योग समन्वय
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…