शारीरिक भावना के साथ बंधे हुए मानसिक और प्राणिक अहं की रचना ही वैश्व प्राण का, अपने क्रमिक विकास में, सर्वप्रथम और महान् प्रयास था; क्योंकि जड़तत्त्व में से सचेतन व्यक्ति को उत्पन्न करने का जो साधन उसने ढूंढ निकाला वह यही था। इस सीमाकारी अहं का विलय कर
देना ही वह एकमात्र शर्त एवं आवश्यक साधन है जिसके द्वारा स्वयं यह वैश्व प्राण अपनी दिव्य परिणति प्राप्त कर सकता है। क्योंकि केवल इसी तरीके से सचेतन व्यक्ति अपने परात्पर आत्म-स्वरूप या सच्चे पुरुष को उपलब्ध कर सकता है।
संदर्भ : योग समन्वय
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…