न कोई आनंद, न बल। पढ़ने-लिखने की इच्छा भी नहीं होती-मानो कोई मुर्दा आदमी चल – फिर रहा हो। आप समझ रहे हैं मेरी स्थिति ? आपको कोई ऐसा व्यक्तिगत अनुभव ?
खूब समझता हूँ; कई बार मेरी भी ऐसी सर्वनाशी स्थिति हुई । इसी कारण, जिनकी यह दशा होती है उन्हें मैं सदा प्रसन्न और प्रफुल्ल रहने की सलाह देता हूँ।
खुश और मस्त रहो, निर्भय-निश्चिंत, यदि रह सको तो, यह कहते रहो, “रोम एक ही दिन में नहीं बना था” – यदि ऐसा नहीं कर सकते तो अंधेरे को भेदते चले जाओ जब तक सूरज न उग आये और नन्हें-नन्हें पक्षी न चहचहाने लगें और सब ठीक-ठाक न हो जाये।
किन्तु दिखता है मानों तुम वैराग्य के प्रशिक्षण में से गुजर रहे हो। स्वयं मैं वैराग्य की कुछ विशेष परवाह नहीं करता, इस पाशविक वस्तु से मैं सदैव किनारा करता रहा हूँ, पर इसमें से कुछ-कुछ गुजरना भी पड़ा, जब तक समता पर मेरा पैर नहीं जा जमा और उसी को मैंने अधिक अच्छी युक्ति नहीं समझ लिया। किन्तु समता कठिन है, वैराग्य सरल, पर हा, नारकीय उदासी और कष्ट से भरा।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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