अगले दिन सवेरे सवा चार बजे जेल की घण्टी बजी। कैदियों को जगाने के लिए यह पहली घण्टी थी। कुछ मिनट बाद दूसरी बजती, इसके बाद कैदी पंक्तिबद्ध हो बाहर आ हाथ-मुँह धो, ‘लपसी’ खा दिन-भर की मशक़्क़त में लग जाते। इतनी घण्टियों के बजते हए सोना असम्भव जान मैं भी उठ जाता। पाँच बजे लौह-द्वार खोला जाता, मैं हाथ-मुँह धो फिर से कमरे में आ बैठा। कुछ देर बाद मेरे दरवाज़े पर लपसी हाज़िर हुई किन्तु उस दिन उसे खाया नहीं, केवल चाक्षुष परिचय हुआ। उसके कुछ दिन बाद पहली बार इस परमान्न का भोग लगाया। लपसी, अर्थात् माँडसहित उबला भात, यही थी कैदियों की छोटी हाज़िरी। लपसी की त्रिमूर्ति या तीन अवस्थाएँ हैं। पहले दिन लपसी का प्राज्ञभाव, अमिश्रित मूलपदार्थ, शुद्ध शिव शुभ्र-मूर्ति। दूसरे दिन लपसी का हिरण्यगर्भ रूप, दाल के साथ सीजा हुआ खिचड़ी के नाम से अभिहित, पीतवर्ण, नाना धर्मसंकुल। तीसरे दिन थोड़े-से गुड़ में मिश्रित लपसी की विराट मूर्ति, धूसर वर्ण, कुछ परिमाण -में मनुष्य के व्यवहार-योग्य। प्राज्ञ और हिरण्यगर्भ का सेवन साधारण मर्त्य मनुष्य के बूते से बाहर मान मैंने उसे त्याग दिया था। कभी-कभार विराट के दो ग्रास उदरस्थ कर ब्रिटिश राज्य के नाना सद्गुण और पाश्चात्य सभ्यता के उच्च दर्जे के humanitarianism (लोकहितवाद) के बारे में सोच-सोच कर आनन्दमग्न होता रहता था। कहना चाहिये कि लपसी ही था बंगाली कैदियों का एकमात्र पुष्टिकर आहार, बाकी सब था सारशून्य। वह होने से भी क्या होगा? उसका जैसा स्वाद था, वह केवल भूख से सताये जाने पर ही खाया जा सकता है, वह भी ज़ोर-ज़बरदस्ती, मन को बहुत समझा-बुझाकर।
उस दिन साढ़े ग्यारह बजे स्नान किया। घर से जो पहन कर आया था, पहले चार-पाँच दिन वही पहने रहना पड़ा। नहाते समय गोहालघर के जो वृद्ध कैदी वॉर्डर मेरी देखरेख के लिए नियुक्त हुए थे उन्होंने कहीं से डेढ़ हाथ चौड़ा एंडी का कपड़ा जुटा दिया था, अपने एकमात्र कपड़े सूखने तक वही पहने बैठा रहता। मुझे कपड़े धोने और बर्तन माँजने नहीं पड़ते थे, गोहालघर का एक कैदी यह कर देता था। ग्यारह बजे खाना कमरे की छितनी के सान्निध्य से बचने के लिए ग्रीष्म की धूप सहते हुए प्रायः ही आँगन में खाया करता। सन्तरी भी इसमें बाधा न देते। शाम का खाना होता पाँच-साढ़े पाँच बजे। उसके बाद लौह-द्वार खुलना निषिद्ध था। सात बजे शाम का घण्टा बजता। मुख्य जमादार कैदी वॉर्डरों को इकट्ठा कर उच्च स्वर में नाम पढ़ते जाते थे, उसके बाद सब अपनी-अपनी जगह चले जाते। श्रान्त कँदी निद्रा की शरण ले जेल के इस एकमात्र सुख का अनुभव करते। इस समय दुर्बलचेता अपने दुर्भाग्य या भावी जेल-दुःख की चिन्ता कर रोया करते। भगवद्-भक्त नीरव रात्रि में ईश्वर का सान्निध्य अनुभव कर प्रार्थना या ध्यान में आनन्द लूटते। रात को इन अभागे, पतित, समाज-पीड़ित तीन सहस्र ईश्वरसृष्ट प्राणियों का यह अलीपुर जेल, प्रकाण्ड यन्त्रणा-गृह विशाल नीरवता में डूब जाता।…
संदर्भ : कारावास की कहानी
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