सभी धर्म इस धारणा से आरम्भ होते हैं कि हमारे सीमित और मरणशील व्यक्तित्वों से महत्तर और उच्चतर कोई शक्ति या सत्ता है, उस शक्ति के प्रति पूजा का भाव और कर्म निवेदित होने चाहियें तथा उसके संकल्प, उसके विधान अथवा उसकी अपेक्षाओं का पालन किया जाना चाहिये।
लेकिन धर्म अपने प्रारम्भिक चरणों में इस प्रकार अवधारित, पूजित तथा आज्ञा-पालित शक्ति और आराधक के बीच एक अपरिमेय खाई पैदा कर देता है। योग अपनी चरमोत्कर्ष अवस्था में उस खाई को पाट देता है; क्योंकि योग संयुक्त करता है।
संदर्भ : योग समन्वय
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…