मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूं, मैं भगवान् की हूं ।
मैं किसी स्वामी, किसी शासक, किसी कानून, किसी सामाजिक प्रथा का हुक्म नहीं मानती, सिर्फ भगवान् का हुक्म मानती हूं।
मैं उन्हें संकल्प, जीवन, स्वत्व, सब कुछ अर्पण कर चुकी हूं; अगर उनकी ऐसी इच्छा हो, तो मैं सहर्ष, बूंद-बूंद करके, अपना सारा रक्त देने को तैयार हूं; उनकी सेवा में कुछ भी बलिदान नहीं हो सकता, क्योंकि सब कुछ पूर्ण आनन्द है ।
सन्दर्भ : माताजी के वचन (भाग – १)
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
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