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मेरी प्रतिमा 

​लोग मुझसे नहीं, मेरे बारे में अपने ही बनाये हुए मानसिक और प्राणिक रूप से प्रेम करते हैं। मुझे इस तथ्य का अधिकाधिक सामना करना पड़ता है।हर एक ने अपनी आवश्यकताओं और कामनाओं के अनुसार अपने लिए मेरी प्रतिमा बना ली है, और उसका सम्बन्ध इसी प्रतिमा के साथ होता है, वह उसी के द्वारा वैश्व शक्तियों की थोडी-सी मात्रा और उससे भी कम अतिमानसिक शक्तियों की मात्रा पाता है जो इन सब रचनाओं मे से छनकर जा पाती है। दुर्भाग्यवश, वे मेरी भौतिक उपस्थिति से चिपके रहते हैं, अन्यथा मैं अपने आन्तरिक एकान्त मे जाकर वहां से चुपचाप, स्वतन्त्र- पूर्वक काम करती हूं; लेकिन उनके लिए यह भौतिक उपस्थिति एक प्रतीक हैं और इसीलिए वे उससे चिपके रहते हैं, क्योंकि वस्तुत: मेरा शरीर सचमुच जो हैं या वह जिस जबर्दस्त सचेतन ऊर्जा के पुंज का प्रतीक है उसके साथ उनका बहुत ही कम वास्तविक सम्पर्क होता है।

संदर्भ : माताजी के वचन (भाग – १)

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