मुक़द्दमे का स्वरूप कुछ विचित्र था। मजिस्ट्रेट, परामर्शदाता, साक्षी, साक्ष्य Exhibits (साक्ष्य-सामग्री), आसामी सभी विचित्र। दिन-पर-दिन उन्हीं गवाहों और Exhibits का अविराम प्रवाह, उसी परामर्शदाता का नाटकोचित अभिनय, उसी बालक-स्वभाव मजिस्ट्रेट की बालकोचित चपलता और लघुता। इस अपूर्व दृश्य को देखते-देखते बहुत बार मन में यह कल्पना उठती कि हम ब्रिटिश विचारालय में न बैठ किसी नाटकगृह के रंगमञ्च पर या किसी कल्पनापूर्ण औपन्यासिक राज्य में बैठे हैं। अब उस राज्य के सब विचित्र जीवों का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ।
इस नाटक के प्रधान अभिनेता थे सरकार बहादुर के परामर्शदाता नॉर्टन साहब। प्रधान अभिनेता ही क्यों, इस नाटक के रचयिता, सूत्रधार (Stage Manager) और साक्षी-स्मारक (prompter) भी थे,-ऐसी वैचित्र्यमयी प्रतिभा जगत् में विरल है। परामर्शदाता नॉर्टन थे मद्रासी साहब, इसीलिए शायद थे बंगाली बैरिस्टर-मण्डली की प्रचलित नीति और भद्रता से अनभ्यस्त एवं अनभिज्ञ। वे कभी राष्ट्रीय महासभा के नेता रहे थे, शायद इसीलिए विरोध और प्रतिवाद सह नहीं सकते थे और विरोधी को शासित करने के आदी थे। ऐसी प्रकृति को लोग कहते हैं हिंस्रस्वभाव। नॉर्टन साहब कभी मद्रास कॉरपोरेशन के सिंह रहे कि नहीं, नहीं कह सकता पर हाँ, अलीपुर कोर्ट के सिंह तो थे ही। उनकी क़ानूनी अभिज्ञता की पैठ पर मग्ध होना कठिन है-वह थी मानों ग्रीष्मकाल की शीत। किन्तु वक्तृता के अनर्गल प्रवाह में, कथन-शैली में, बात की चोट से राई को पहाड़ बनाने की अद्भुत क्षमता में, निराधार या कुछ आधार लिये हुए कथनों को कहने की दुःसाहसिकता में, साक्षी ओर जूनियर बेरिस्टर की भर्त्सना में और सफ़ेद को काला करने की मनमोहिनी शक्ति में नॉर्टन साहब की अतुलनीय प्रतिभा देख मुग्ध होना ही पड़ता था। श्रेष्ठ परामर्शदाताओं की तीन श्रेणियाँ हैं-जो क़ानून के पाण्डित्य से और यथार्थ व्याख्या और सूक्ष्म विश्लेषण से जज के मन में प्रतीति जनमा सकते हैं; जो चतुराई के साथ साक्षी से सच्ची बात उगलवा और मुक़द्दमे-सम्बन्धी घटनाओं और विवेच्य विषय का दक्षता के साथ प्रदर्शन कर जज या जूरी का मन अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं; और जो ऊँची आवाज़ से, धमकियों से, वक्तता के प्रवाह से साक्षी को हतबुद्धि कर, मक़द्दमे के विषय को चमत्कारी ढंग से तोड़-मरोड़, गले के ज़ोर से जज या जूरी की बुद्धि भरमा मुक़द्दमे जीत सकते हैं। नॉर्टन साहब थे तीसरी श्रेणी में अग्रगण्य। यह कोई दोष की बात नहीं। वे ठहरे परामर्शदाता व्यवसायी आदमी, पैसा लेने वाले, जो पैसा दे उसका अभीप्सित उद्देश्य सिद्ध करना है उनका कर्तव्य-कर्म। आजकल ब्रिटिश क़ानून-प्रणाली में सच्ची बात बाहर निकालना वादी या प्रतिवादी का असल उद्देश्य नहीं, किसी भी तरह मुक़द्दमा जीतना ही है उद्देश्य। अतएव, परामर्शदाता वैसी ही चेष्टा करेंगे, नहीं तो उन्हें धर्मच्युत होना होगा। भगवान् द्वारा अन्य गुण न दिये जाने पर जो गुण हैं उनके बल पर ही मुक़द्दमा जीतना होगा, अतः नॉर्टन साहब स्वधर्म-पालन ही कर रहे थे। सरकार बहादुर उन्हें हर रोज़ हज़ार रुपये देती थी। यह अर्थव्यय वृथा जाने से सरकार बहादुर की क्षति होती, यह क्षति न हो इसके लिए नॉर्टन साहब ने प्राणपन से चेष्टा की थी। पर राजनीतिक मुक़द्दमे में आसामी को विशेष उदारता के साथ सुविधा देना और सन्देहजनक एवं अनिश्चित प्रमाण पर ज़ोर न देना ब्रिटिश कानून-पद्धति का नियम है। नॉर्टन साहब यदि इस नियम को सदा याद रखते तो, मेरे ख़याल में, उनके केस की कोई हानि न होती।…
संदर्भ : कारावास की कहानी
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