इस अवस्था को घनीभूत होने में कुछ दिन लगे, इसी बीच मजिस्ट्रेट की अदालत में मुक़द्दमा शुरू हुआ। निर्जन कारावास की नीरवता से हठात् बाह्य जगत् के कोलाहल में लाये जाने पर शुरू-शुरू में मन बड़ा विचलित हुआ, साधना का धैर्य टूट गया और पाँच-पाँच घण्टे तक मुक़द्दमे के नीरस और विरक्तिकर बयान सुनने को मन किसी भी तरह राज़ी नहीं हुआ। पहले अदालत में बैठ साधना करने की चेष्टा करता, लेकिन अनभ्यस्त मन प्रत्येक शब्द और दृश्य की ओर खिंच जाता, शोरगुल में वह चेष्टा व्यर्थ चली जाती, बाद में भावपरिवर्तन हुआ, समीपवर्ती शब्द और दृश्य मन से बाहर ठेल सारी चिन्तन-शक्ति को अन्तर्मुखी करने की शक्ति जनमी, किन्तु यह मुक़द्दमे की प्रथम अवस्था में नहीं हुआ, तब ध्यान-धारणा की प्रकृत क्षमता नहीं थी। इसीलिए यह वृथा चेष्टा त्याग, बीच-बीच में सर्वभूतों में ईश्वर के दर्शन कर सन्तुष्ट रहता, बाक़ी समय विपत्ति के साथियों की बातों और उनके कार्य-कलाप पर ध्यान देता, दूसरा कुछ सोचता, या कभी नॉर्टन साहब की श्रवण-योग्य बात या गवाहों को गवाही भी सुनता। देखता कि निर्जन कारागृह में समय काटना जितना सहज और सुखकर हो उठा है, जनता के बीच और इस गुरुतर मुक़द्दमे के जीवन-मरण के खेल के बीच समय काटना उतना सहज नहीं। अभियुक्त लड़कों का हँसी-मज़ाक और आमोद-प्रमोद सुनना और देखना बड़ा अच्छा लगता, नहीं तो अदालत का समय केवल विरक्तिकर ही महसूस होता। साढ़े चार बजे कैदियों की गाड़ी में बैठ सानन्द जेल लौट आता।
संदर्भ : कारावास की कहानी
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