न केवल अपनी आन्तरिक एकाग्रता में बल्कि अपनी बाह्य क्रियाओं व गतिविधियों में भी तुम्हें उचित मनोवृत्ति अपनानी चाहिये। यदि तुम ऐसा करो और प्रत्येक चीज़ को श्रीमाँ के मार्गदर्शन में छोड़ दो तब तुम देखोगे कि कठिनाइयाँ कम होने लगी हैं, अधिक आसानी से समाप्त होने लगी हैं तथा चीज़ें धीरे-धीरे निर्विघ्न हो गयी हैं ।
अपने कर्म में तथा क्रियाओं में तुम्हें वही करना चाहिये जो तुम अपनी एकाग्रता में करते हो। श्रीमाँ के प्रति उद्घाटित रहो, कर्मो को उनके मार्गदर्शन में छोड़ दो, शांति, अवलम्ब देने वाली शक्ति, सुरक्षा का आवाहन करो और वे प्रभावकारी रूप से कार्य कर सकें इसके लिए सभी अनुचित प्रभावों को – जो संभावित रूप से अनुचित, असावधान या अचेतन गतिविधियों के रूप में बाधक बन कर आ सकते हैं – अस्वीकार करो।
इस सिद्धान्त का पालन करो और तुम्हारी समस्त सत्ता शांति तथा आश्रयदायिनी शक्ति और प्रकाश में, एक ही नियम के अधीन एकत्व प्राप्त कर लेगी ।
संदर्भ : माताजी के विषय में
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…