मनुष्य की सभी समस्याओं का उत्तर


श्रीअरविंद का चित्र

सब कुछ बदल जाये यदि किसी तरह मनुष्य एक बार आध्यात्मिक बनने के लिए राजी हो सके । परन्तु उसकी मानसिक और प्राणिक और भौतिक प्रकृति इस उच्चतर नियम के प्रति विद्रोही है । उसे अपनी अपूर्णता प्रिय है ।

आत्मा , हमारी सत्ता का सत्य है ; मन और प्राण और शरीर अपनी अपूर्णता में इस आत्मा के आवरण हैं , परन्तु अपनी पूर्णता में वे इसके सांचे होंगे । केवल आध्यात्मिक होना ही पर्याप्त नहीं है , इससे कुछ आत्माएं स्वर्ग के लिए तैयार हो जाती हैं , परन्तु पृथ्वी बहुत कुछ जहां थी , वहीं छूट जाती है । न ही मुक्ति का यह रास्ता कोई समझौता है ।

संसार तीन क्रान्तियों से परिचित है ।

१ . भौतिक के परिणाम प्रबल हैं ,

२ . नैतिक और बौद्धिक के क्षेत्र असीम और फल की दृष्टि से बहुत अधिक समृद्ध हैं परन्तु ,

३ . आध्यात्मिक ( क्रान्ति) महान बीजों को बोना है ।

 

यदि त्रिविध परिवर्तन एक ही समय में अनुकूलन की स्थिति में हों तो एक त्रुटिहीन कर्म किया जा सकेगा , लेकिन मानवजाति के मन और शरीर आती हुई आध्यात्मिकता के प्रबल प्रवाह को अपने अन्दर पूरी तरह धारण नहीं कर सकते , बहुत कुछ बिखर जाता है और शेष का बहुत कुछ विकृत हो जाता है । एक लम्बी आध्यात्मिक बुवाई के थोड़े – से परिणामों के लिए बौद्धिक और भौतिक माटी की बहुत बार जुताई की जरूरत होती है ।

प्रत्येक धर्म ने मानवजाति को सहायता पहुंचाई है । पेगेनिज़म ( सर्वदेववादी प्रकृति – पूजा ) ने मनुष्य के अन्दर सौन्दर्य के प्रकाश को विकसित किया , जीवन की विशालता और उच्चता को बढ़ाया , बहुमुखी पूर्णता के उसके लक्ष्य को उन्नत किया ; ईसाइयत ने उसे दिव्य प्रेम , करुणा और सहृदयता का कुछ दर्शन कराया । बौद्ध – धर्म ने अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान् , अधिक विनीत और पवित्र बनने का एक उत्कृष्ट मार्ग दिखलाया ; यहदी – धर्म और इस्लाम ने उसे धार्मिक कर्म में सच्चा होना और ईश्वर के प्रति उत्कष्ट रूप से भक्तिमय होना सिखाया ; हिन्दू – धर्म ने उसके आगे बड़ी – से – बडी
और गहन – से – गहन आध्यात्मिक सम्भावनाओं को खोल दिया । एक बडा कार्य सिद्ध हो जायेगा जब ये सब ईश – दर्शन परस्पर आलिंगन में बद्ध होंगे और अपने – आपको एक दूसरे के अन्दर ढाल देंगे , लेकिन बौद्धिक सिद्धान्तवाद और साम्प्रदायिक अहंकार मार्ग में बाधक हैं ।

सभी धर्मों ने बहुत-सी आत्माओं को बचाया है , लेकिन अब तक कोई भी मानवजाति को आध्यात्मिक नहीं बना सका । इसके लिए वहां किसी सम्प्रदाय और सिद्धान्तवाद की जरूरत नहीं है बल्कि आत्म – विश्वास के लिए एक सर्वांगीण और सतत प्रयत्न की आवश्यकता है । आज विश्व में जो परिवर्तन दिखायी दे रहे हैं वे अपनी अन्तर्दष्टि और आदर्श में बौद्धिक , नैतिक और भौतिक हैं : आध्यात्मिक क्रान्ति अपने मुहूर्त की प्रतीक्षा में है और तब तक यह इधर – उधर अपनी लहरों को बिखेरती रहेगी । जब तक यह नहीं आ जाती , दूसरी क्रान्तियां समझ में नहीं आ सकतीं और तब तक वर्तमान घटनाओं की सभी व्याख्याएं और समय की भविष्यवाणियां व्यर्थ चीजे है । क्योंकि इसकी प्रकृति, शक्ति,घटनाएं ही मानवता के अगले विकास – चक्र को निश्चित करेंगी ।

 

संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१६)


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