भागवत करुणा और न्याय का कठघरा

भूल या सजा देने का कोई प्रश्न ही नहीं है-अगर लोगों को हम उनकी भूलों के लिए अपराधी ठहरायें या उन्हें सजा दें, और साधकों के साथ
ऐसे व्यवहार करें मानों वे न्याय के कठघरे में खड़े हों, तो कोई साधना सम्भव नहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि हमारे विरुद्ध तुम्हारी बात कैसे न्यायोचित है। साधकों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य यही है कि हम उन्हें उनकी आध्यात्मिक उपलब्धि की ओर ले जायें-हम परिवार के मुखिया की तरह नहीं बर्ताव कर सकते कि उनके घरेलू झगड़ों में पड़ें, किसी एक की तरफदारी करें, किसी दूसरे के विरोध में अपनी धौंस जमायें । चाहे जितनी बार ‘क्ष’ डगमगाये, हमें उसका हाथ थामना होगा, उसे फिर से उठाना होगा और एक बार फिर उसे भगवान के पथ पर बढ़ाना होगा। हमने तुम्हारे साथ भी हमेशा ऐसा ही किया है। लेकिन हम उस पर तुम्हारी कोई माँग नहीं लाद सकते। वह उसके और भगवान् के बीच का मामला है। हाँ, तुम्हारे लिए जिस एकमात्र चीज़ का हमने आग्रह किया है, और वह भी तुम्हारी पूरी सहमति के साथ और हमारे प्रति तुम्हारी इस निरन्तर प्रार्थना के उत्तर में कि ‘क’ के साथ पूरी तरह से तुम्हारा प्राणिक सम्बन्ध  कट जाये। इसी कारण हम उस सम्बन्ध के आधार को ही पूरी तरह मिटाने पर ज़ोर दे रहे हैं। और अब तुम हमें लिख रहे हो कि चूंकि तुमने ‘व’ से जो कुछ कहा, उसका हमने समर्थन नहीं किया, भले ही तुम्हारी क्रिया चाहे जो भी रही हो, इसलिए तुम हमेशा के लिए हमें छोड़ रहे हो।

मैं तुमसे कहना चाहूँगा कि अपने बेहतर स्वभाव को दोबारा ऊपर ले आओ, अपनी सच्ची चेतना में बसो और इन प्राणिक आवेशों को
निकाल बाहर फेंको जो तुम्हारे स्वभाव के योग्य नहीं हैं। तुमने श्रीमाँ के प्रति अपने प्रेम के बारे में बार-बार लिखा है, उस आनन्द का कितनी ही बार उल्लेख किया है जो तुम्हें उनसे मिला और उन असंख्य आध्यात्मिक अनुभूतियों का भी जो तुम्हें हुईं। उस सबको याद करो और याद करो। कि यही तुम्हारा सच्चा पथ है, तुम्हारी सच्ची सत्ता है, दूसरी किसी चीज़ का मूल्य नहीं है। अपनी धीरता को फिर से प्राप्त करो और अपनी निम्न प्रकृति, उसके अन्धकार और अज्ञान को उखाड़ बाहर फेंक दो।

संदर्भ : माताजी के विषय में

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