मनुष्य को भगवान पर भरोसा रखना, उन पर निर्भर होना चाहिए और साथ-साथ कोई उपयुक्त बनाने वाली साधना करनी चाहिये – भगवान साधना के अनुपात में नहीं बल्कि अंतरात्मा की सच्चाई तथा उसकी अभीप्सा के अनुपात में फल प्रदान करते हैं (मेरा मतलब है अंतरात्मा की सच्चाई, भगवान के लिए उसकी उत्कंठा तथा उच्चतर जीवन के लिए उसकी अभीप्सा से)। फिर चिंतित होने से – “मैं यह बनूँगा, वह बनूँगा, मैं क्या बनूँ” आदि सोचते रहने से भी कोई लाभ नहीं होता। कहना चाहिये : “मैं जो कुछ होना चाहता हूँ वह नहीं बल्कि जो भगवान चाहते हैं कि मैं बनूँ वह बनने के लिए तैयार हूँ” – बाक़ी सब कुछ उसी आधार पर चलते रहना चाहिये।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…