तुम क्या चाहते हो इसे तुम्हें अलग रख देना होगा, और यह जानने की इच्छा करनी होगी कि भगवान क्या चाहते हैं; तुम्हारा हृदय, तुम्हारी कामनाएँ अथवा तुम्हारें अभ्यासजनित विचार जिसे उचित और आवश्यक मानना चाहते हैं उस पर विश्वास न करों, और उनसे परे जाकर गीता में अर्जुन के समान सिर्फ यह जानने की अभीप्सा करो कि भगवान के निश्चय के अनुसार क्या उचित और आवश्यक है । इस श्रद्धा में अटल बने रहो कि जो भी उचित और आवश्यक है वह अनिवार्य रूप से तुम्हारे ‘कर्तव्य कर्म ‘ की अपेक्षित पूर्ति के परिणाम-स्वरूप ही होगा, चाहे वह तुम्हें पसंद न भी हो अथवा तुम उसकी उम्मीद भी न करते होओ। वह शक्ति जो संसार को शासित करती है, कम-से-कम तुम्हारें बराबर बुद्धि तो रखती ही है, और यह बिलकुल आवश्यक नहीं है कि उसकी व्यवस्था में तुमसे परामर्श लिया जाये या तुम्हें संतुष्ट किया जाये; भगवान इसका ध्यान रख रहे हैं ।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१६)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…