हमारा वासस्थान था तो ऐसा, लेकिन साज-सरंजाम में भी हमारे सहदय कर्मचारियों ने आतिथ्य संस्कार में कोई त्रुटि नहीं की। एक थाली और एक कटोरा आँगन को सुशोभित करते थे। खूब अच्छी तरह माँजे जाने पर मेरा सर्वस्व थाली और कटोरा चाँदी की तरह इस क़दर चमकते कि प्राण जुड़ा जाते और उस निर्दोष किरणमयी उज्ज्वलता में ‘स्वर्गजगत्’ में विशुद्ध ब्रिटिश राजतन्त्र
की उपमा पर राजभक्ति के निर्मल आनन्द का अनुभव करता था। दोषों में एक दोष था कि थाली भी उसे समझ कर आनन्द में इतनी उत्फुल्ल हो उठती थी कि अँगुली का ज़रा-सा ज़ोर पड़ते ही वह घुमक्कड़ अरब-दरवेशों की तरह चक्कर काटने लगती, ऐसे में एक हाथ से खाना और एक हाथ से थाली पकड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। नहीं तो चक्कर काटते-काटते जेल का अतुलनीय मुट्ठी-भर अन्न लेकर वह भाग जाने का उपक्रम करती। थाली की अपेक्षा कटोरा था और भी अधिक प्रिय और उपकारी। जड़ पदार्थों में मानों यह था ब्रिटिश ‘सिविलियन’। सिविलियनों में जैसे सब कार्यों में स्वभावजात निपुणता और योग्यता होती है, जज, शासनकर्ता, पुलिस, शुल्क-विभाग के कर्ता, म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष, शिक्षक, धर्मोपदेशक, जो चाहो वही, कहने भर से ही, बन सकते हैं जैसे उनके लिए, एक शरीर में, एक ही साथ अनुसन्धाता, अभियोगकर्ता, पुलिस, विचारक और कभी-कभी वादी के परामर्शदाता का भी प्रीतिसम्मिलन सहज साध्य था, वैसा ही था मेरा प्यारा कटोरा भी। कटोरे की जात नहीं, विचार नहीं। कारागृह में उसी कटोरे से पानी ले शौच किया, उसी कटोरे से मुँह धोया, स्नान किया, कुछ देर बाद उसी में खाना पड़ा, उसी कटोरे में दाल या तरकारी डाली गयी, उसी कटोरे से पानी पिया और कुल्ला किया। ऐसी सर्वकार्यक्षम मूल्यवान् वस्तु अँगरेज़ों की जेल में ही मिलनी सम्भव है। कटोरा मेरे लिए ये सब सांसारिक उपकार कर, योग-साधना में भी सहायक
बना। घृणा-परित्याग कराने का ऐसा सहायक और उपदेशक कहाँ पाऊँगा?
संदर्भ : कारावास की कहानी
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