… बहुत कठोर युक्ति-तर्कवाले लोग तुमसे कहते हैं : “तुम प्रार्थना क्यों करते हो? तुम अभीप्सा क्यों करते हो? तुम मांगते क्यों हो? भगवान् जो चाहते हैं वही करते हैं और वही करेंगे जो वे चाहते हैं।” अवश्य ही बात ठीक है, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, परन्तु यह उत्कण्ठा कि : “हे प्रभो! प्रकट हो!” उनकी अभिव्यक्ति को एक अधिक तीव्र स्पन्दन प्रदान करती है।
अन्यथा, उन्होंने, इस जगत् को वैसा न बनाया होता जैसा कि यह है -संसार जो कुछ है वही फिर से बन जाने की उसकी अभीप्सा की तीव्रता में एक विशिष्ट शक्ति, एक विशिष्ट आनन्द, एक विशिष्ट स्पन्दन और उसी के लिए—“उसी के लिए”, अंशतः, खण्डशः-एक क्रम- विकास विद्यमान है।
शाश्वत रूप से पूर्ण, शाश्वत परिपूर्णता को शाश्वत रूप से अभिव्यक्त करने वाला विश्व प्रगति का आनन्द न पा सकेगा।
संदर्भ : विचार और सूत्र के संदर्भ में
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