(आश्रम के क्रीड़ांगण में २९ फरवरी १९५६ को बुधवार के सार्वजनिक ध्यान के समय)
आज की सांझ तुम लोगों के बीच भगवान् की ठोस और भौतिक ‘ उपस्थिति ‘ विद्यमान थी । मेरा रूप जीवित स्वर्ण का था, सारे विश्व से बड़ा, ओर मैं एक बहुत बड़े और विशालकाय सोने के दरवाजे के सामने खड़ी थी जो जगत् को भगवान् से अलग करता हैं ।
जैसे हीं मैंने दरवाजे पर नजर डाली, मैंने चेतना की एक ही गति में जाना और संकल्प किया कि ”अब समय आ गया है ”, और दोनों हाथों से एक बहुत बड़ा सोने का हथौड़ा उठा कर मैंने एक चोट लगायी, दरवाजे पर एक ही प्रहार किया और दरवाजा चूर-चूर हो गया ।
तब अतिमानसिक ‘ज्योति’ ,’शक्ति’ और ‘चेतना’ धरती पर अबाध प्रवाह के रूप में बह निकली ।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग -१)
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
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