माताजी, हर बार जब मैं अपनी चेतना में जरा उठने की कोशिश करता हूँ तो एक धक्का-सा लगता है और ऐसा मालूम होता है कि मैं उठने की जगह गिर रहा हूँ। जब मैं प्रयास छोड़ देता हूँ तो सब स्वाभाविक हो जाता है ।
जहां तक प्रगति का संबंध है, ऐसा इसलिए होता है कि तुम मानसिक रूप से प्रयास कर रहे हो और मन हमेशा चेतना के लिये सीमा-बंधन होता है। केवल हृदय और चैत्य से उठने वाली अभीप्सा ही प्रभावकारी हो सकती है। (और जब तुम प्रयास करना छोड़ देते हो तो तुम मुझे अपने अंदर काम करने देते हो और मैं उचित मार्ग जानती हूँ !)
संदर्भ : श्रीमातृवाणी(खण्ड-१६)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…