माताजी, हर बार जब मैं अपनी चेतना में जरा उठने की कोशिश करता हूँ तो एक धक्का-सा लगता है और ऐसा मालूम होता है कि मैं उठने की जगह गिर रहा हूँ। जब मैं प्रयास छोड़ देता हूँ तो सब स्वाभाविक हो जाता है ।
जहां तक प्रगति का संबंध है, ऐसा इसलिए होता है कि तुम मानसिक रूप से प्रयास कर रहे हो और मन हमेशा चेतना के लिये सीमा-बंधन होता है। केवल हृदय और चैत्य से उठने वाली अभीप्सा ही प्रभावकारी हो सकती है। (और जब तुम प्रयास करना छोड़ देते हो तो तुम मुझे अपने अंदर काम करने देते हो और मैं उचित मार्ग जानती हूँ !)
संदर्भ : श्रीमातृवाणी(खण्ड-१६)
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