प्रकाश – श्रीअरविन्द की कविता

प्रकाश, अन्तहीन प्रकाश! अंधेरे को नहीं अब अवकाश,
जीवन की अज्ञानी खाइयां तज रहीं अपनी गोपनता :
विशाल अवचेतन-गहराइयां जो पहले अज्ञात थीं
फैली हैं प्रस्फुरित होती विराट प्रत्याशा में।

प्रकाश, कालहीन प्रकाश अपरिवर्तनीय और पृथक् !
पवित्र मुद्रित रहस्यमय द्वार खुल रहे।
प्रकाश, प्रज्वलित प्रकाश अनन्त के हीरक हृदय से
कम्पित होता है मेरे हृदय में जहां मृत्युहीन गुलाब खिलता है।

प्रकाश अपने हर्षोन्माद में शिराओं में उछल रहा !
प्रकाश, विचारमग्न प्रकाश! हर आक्रान्त भावप्रवण कोशिका
आनन्द की अनुच्चरित प्रदीप्ति में कायम रख रही
अविनाशी का सजीव सम्बोध।

मैं सञ्चरण करता हूं एक विस्मयकारी प्रकाश के समुद्र में
संयुक्त करता हुआ अपनी गहराइयां उसके शाश्वत शिखर से।

सन्दर्भ : श्रीअरविन्द की कविताओं से  

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