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परामर्शदाता नॉर्टन और मजिस्ट्रेट बर्ली साहब

यदि नॉर्टन साहब थे नाटक के रचयिता, प्रधान अभिनेता और सूत्रधार तो मजिस्ट्रेट बर्ली को कहा जा सकता है नाटककार का पृष्ठपोषक या patron | बर्ली साहब शायद थे स्कॉच जाति के गौरव। उनका चेहरा स्कॉटलैंड का स्मारक चिह्न था। खूब गोरी, खूब लम्बी, अति कृष, दीर्घ देहयष्टि पर छोटा-सा सिर देख ऐसा लगता था जैसे अग्रभेदी आक्टोरलोनी के monument (स्मारक) पर छोटे-से आक्टोरलोनी बैठे हों, या क्लियोपेट्रा के obelisk (स्तम्भ) के शिखर पर एक पका नारियल रखा हो। उनके बाल थे धूसर वर्ण (sandy haired) और स्कॉटलैंड की सारी ठण्ड और बर्फ़ उनके चेहरे के भाव पर जमी हुई थी। जो इतना दीर्घकाय हो उसकी बद्धि भी तद्रूप होनी चाहिये, नहीं तो प्रकृति की मितव्ययता के सम्बन्ध में सन्देह होता है। किन्तु इस प्रसंग में, बर्ली की सृष्टि के समय, लगता है, प्रकृति देवी कुछ अनमनी एवं अन्यमनस्क हो गयी थीं। अंगरेज़ कवि मार्लो ने इस मितव्ययता का infinite riches in a little room (छोटे-से भण्डार में असीम धन) कह वर्णन किया है किन्तु बर्ली का दर्शन कवि के वर्णन से विपरीत भाव मन में जगाता है-infinite room in little riches (असीम भण्डार में क्षुद्र धन)। सचमुच, इस दीर्घ देह में इतनी थोड़ी विद्याबुद्धि देख दुःख होता था और इस तरह के अल्पसंख्यक शासनकर्ताओं
द्वारा तीस कोटि भारतवासी शासित हो रहे हैं यह याद कर अंगरेज़ों की महिमा और ब्रिटिश शासन-प्रणाली पर प्रगाढ़ भक्ति उमड़ती थी। श्रीयुत् व्योमकेश चक्रवर्ती द्वारा जिरह करते समय बर्ली साहब की विद्या की पोल खुली। इतने साल मजिस्ट्रेटगिरी करने के बाद भी यह निर्णय करने में उनका सिर घूम गया कि उन्होंने अपने करकमलों में यह मुक़द्दमा कब ग्रहण किया या कैसे मुक़द्दमा ग्रहण किया जाता है, इस समस्या को सुलझाने में असमर्थ हो चक्रवर्ती साहब पर इसका भार दे साहब स्वयं निष्कृति पाने के लिए सचेष्ट हुए। अभी भी यह प्रश्न मुक़द्दमे की अतिजटिल समस्याओं में से एक गिना जाता है कि बर्ली  ने कब मुक़द्दमा अपने हाथ में लिया था। चटर्जी महाशय के प्रति किये गये जिस करुण निवेदन का उल्लेख मैंने किया है उससे भी साहब की चिन्तनधारा का अनुमान लगाया जा सकता  है। शुरू से ही वे नॉर्टन साहब के पाण्डित्य और वाग्विलास से मन्त्रमुग्ध हो उनके वश में हो गये थे। ऐसे विनीत भाव से नॉर्टन द्वारा प्रदर्शित पथ का अनुसरण करते, नॉर्टन की हाँ में हाँ मिलाते, नॉर्टन के हँसने से हँसते, नॉर्टन के कुपित होने पर कुपित होते कि यह सरल शिशुवत् आचरण देख कभी-कभी मन में प्रबल स्नेह और वात्सल्य का आविर्भाव होता। बर्ली के स्वभाव में निरा लड़कपन था। उन्हें कभी भी मजिस्ट्रेट न मान सका, ऐसा लगता मानों स्कूल का छात्र हठात् स्कूल का शिक्षक बन शिक्षक के उच्च मञ्च पर चढ़ बैठा है। ऐसे ही वे कोर्ट का काम चलाते। कोई उनके साथ अप्रिय व्यवहार करता तो स्कूली शिक्षक की तरह शासन करते। हममें से यदि कुछ मुक़द्दमे के प्रहसन से विरक्त हो आपस में बातें करने लगते तो बर्ली साहब स्कूल मास्टर की तरह बिगड़ने लगते, उनकी बात न सुनने पर सबको खड़े हो जाने की आज्ञा देते, उसका भी तुरन्त पालन न किया तो प्रहरी को कहते हमें खड़ा कर देने के लिए। हम स्कूलमास्टर के इस रंग-ढंग को देखने के इतने आदी हो गये थे कि जब बर्ली और चटजी महाशय का झगड़ा खड़ा हुआ तो हम प्रति क्षण इस आशा में थे कि अब बैरिस्टर साहब को खड़े रहने का दण्ड मिलेगा। बर्ली साहब ने लेकिन उलटा रास्ता पकड़ा, चिल्लाते हुए sit down, Mr. chatterjee (बैठ जाइये, मि.चटर्जी) कह अलीपुर स्कल के इस नवागत उद्दण्ड छात्र को बिठा दिया। जैसे कोई-कोई मास्टर छात्र के किसी प्रश्न से या पढ़ाते समय अतिरिक्त व्याख्यान चाहने से खीज कर उसे डाँट देते हैं, बर्ली भी आसामी के वकील को आपत्ति पर खीज उसे डपट देते। कोई-कोई साक्षी नॉर्टन को परेशान करते। नॉर्टन सिद्ध करना चाहते थे कि अमुक लेख अमुक आसामी के हस्ताक्षर हैं, साक्षी यदि कहते कि नहीं, यह तो ठीक
उस लेख की तरह नहीं, फिर भी हो सकता है, कहा नहीं जा सकता बहुत-से साक्षी इसी तरह का उत्तर देते थे-तो नॉर्टन अधीर हो उठते।
बक-झक कर, चिल्ला कर, डाँट-डपट कर किसी भी उपाय से अभीप्सित उत्तर उगलवाने की चेष्टा करते। उनका अन्तिम प्रश्न होता, “What is your belief ?” तुम क्या मानते हो, हाँ या ना? साक्षी न हाँ कह पाते न ना। घुमा-फिरा बार-बार वही उत्तर देते। नॉर्टन को यह समझाने की चेष्टा करते कि उनका कोई भी belief (विश्वास) नहीं, वे सन्देह में झूल रहे हैं। किन्तु नॉर्टन वह उत्तर नहीं चाहते थे, बार-बार मेघगर्जना करते हुए उसी सांघातिक प्रश्न से साक्षी के सिर पर वज्राघात करते, “come, sir, what is your belief ?” (हाँ, तो फिर क्या राय है महाशय, आपकी?) नॉर्टन के क्रुद्ध होते ही बी भी ऊपर से गरजते. “टोमारा क्या विश्वास है?” बेचारे साक्षी महाविपद् में पड़ जाते। उनका कोई विश्वास नहीं, लेकिन एक तरफ़ से मजिस्ट्रेट, दूसरी तरफ़ से नॉर्टन क्षधित व्याघ्र की तरह उनकी बोटी-बोटी अलग कर अमूल्य अप्राप्य विश्वास बाहर निकलवाने को तत्पर हो दोनों तरफ़ से भीषण गर्जन कर रहे हैं। बहुधा विश्वास ज़ाहिर न होता, चकरायी बुद्धि और पसीने से तर साक्षी उस यन्त्रणा-स्थल से अपने प्राण बचा भाग खड़े होते। कोई-कोई प्राणों को ही विश्वास से प्रियतर मान नॉर्टन साहब के चरण-कमलों में झूठे विश्वास का उपहार चढ़ा बच निकलते, नॉर्टन भी अति सन्तुष्ट हो बाकी जिरह स्नेहसहित सम्पन्न करते। ऐसे परामर्शदाता के साथ आ मिले ऐसे मजिस्ट्रेट तभी तो मुक़द्दमे ने और भी अधिक नाटकीय रूप धारण कर लिया था।

 

संदर्भ : कारावास की कहानी

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