नम्रता चेतना की वह अवस्था है जिसमें तुम्हारी उपलब्धि चाहे जितनी क्यों न हो, तुम्हें यह भान रहता है कि अब भी अनन्त तुम्हारे सामने है। निस्स्वार्थ प्रशंसा का विरल गुण, जिसके बारे में मैं पहले कह चुकी हूं, सच्ची विनम्रता का एक और पहलू है; क्योंकि शुद्ध अक्खड़पन या अहंकार ही हमेशा सामने रहने वाले अनन्त को भूल कर प्रशंसा करने से इन्कार करता है और अपनी तुच्छ प्राप्तियों से आत्म-सन्तुष्ट रहता है। फिर भी, जब तुम्हारे अन्दर कुछ भी सार-तत्त्व या दिव्य न हो, तभी नम्र होने की जरूरत नहीं होती, नम्रता तब भी जरूरी होती है जब तुम रूपान्तर के मार्ग पर हो।

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१

शेयर कीजिये

नए आलेख

भगवान के दो रूप

... हमारे कहने का यह अभिप्राय है कि संग्राम और विनाश ही जीवन के अथ…

% दिन पहले

भगवान की बातें

जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…

% दिन पहले

शांति के साथ

हमारा मार्ग बहुत लम्बा है और यह अनिवार्य है कि अपने-आपसे पग-पग पर यह पूछे…

% दिन पहले

यथार्थ साधन

भौतिक जगत में, हमें जो स्थान पाना है उसके अनुसार हमारे जीवन और कार्य के…

% दिन पहले

कौन योग्य, कौन अयोग्य

‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…

% दिन पहले

सच्चा आराम

सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…

% दिन पहले