यदि किसी को ध्यान का अभ्यास न हो तो आरम्भ में ही दीर्घकाल तक ध्यान लगाकार श्रांत होने की कोई आवश्यकता नहीं है ; क्योंकि थके-मांदे मन से जो ध्यान किया जाता है उसमें कोई शक्ति नहीं होती और न उससे कोई लाभ होता है। उस समय एकाग्र होकर ध्यान करने की अपेक्षा तन-मन को ढीला छोड़कर मनन किया जा सकता है। ध्यान जब सहज हो जाये तभी ध्यान करने का समय उत्तरोतर बढ़ाना चाहिये।

संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग -१)

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