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धर्म और योग में अंतर

मधुर मां, योग और धर्म में क्या अन्तर है?

आह ! मेरे बच्चे… यह तो ऐसा है मानों तुम मुझसे यह पूछो कि कुत्ते और बिल्ली में क्या अन्तर है!

(लम्बा मौन)

एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करो जिसने, किसी-न-किसी रूप में, भगवान् जैसी किसी चीज के बारे में कुछ सुना है अथवा जिसे व्यक्तिगत रूप से ऐसा अनुभव हुआ है कि इस प्रकार की किसी वस्तु का अस्तित्व है। वह सब प्रकार के प्रयत्न करना आरम्भ करता है : संकल्प-शक्ति का प्रयोग, नियमानुशीलन, एकाग्रता का अभ्यास-सभी प्रकार के प्रयत्न इसलिए करता है कि वह इन भगवान् को पाये, यह पता लगाये कि वे क्या हैं, उनसे परिचित हो और उनके साथ युक्त हो जाये। तब कहा जायेगा कि यह व्यक्ति योग कर रहा है।

अब, यदि इस व्यक्ति ने उन सभी प्रयुक्त प्रक्रियाओं को लिपिबद्ध कर लिया है और वह एक निश्चित शैली का निर्माण कर लेता है, और जो कुछ उसने अनुसन्धान किया है उस सबको अकाट्य नियमों के रूप में प्रस्थापित कर लेता है-उदाहरणार्थ, वह कहता है : भगवान् इस प्रकार के हैं, भगवान् को पाने के लिए तुमें ऐसा करना ही होगा, यह विशिष्ट भंगिमा अपनानी होगी, यह मनोभाव बनाना होगा, यह अनुष्ठान सम्पन्न करना होगा और तुम्हें अवश्य स्वीकार करना होगा कि यही सत्य है, तुम्हें अवश्य कहना होगा, “मैं यह स्वीकार करता हूं कि यही है सत्य और मैं पूर्ण रूप से इससे सम्बद्ध हूं; और तुम्हारी पद्धति ही एकमात्र यथार्थ पद्धति है, एकमात्र पद्धति जिसका अस्तित्व है।”-यदि यह सब लिख लिया गया हो, किन्हीं सुनिश्चित विधानों और अनुष्ठानों में संगठित और व्यवस्थित कर दिया गया हो तो यही बन जाता है धर्म।

 

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५६

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