मुलतः धम्मपद के सूत्रों से यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति के लिए दिखायी देने की अपेक्षा होना अधिक आवश्यक है। उसे जीना चाहिये न कि दिखावा करना, दूसरो को यह दिखाने की अपेक्षा कि वह कुछ चरितार्थ कर रहा है, यह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है कि वह वस्तु को उसके समग्र और पूर्ण रूप में सच्चाई के साथ चरितार्थ करे!
यहाँ भी वही बात है : जब व्यक्ति जो कुछ कर रहा है उसे बताने की आवश्यकता अनुभव करता है, तो वह अपने आधे कर्म को नष्ट कर डालता है। पर साथ ही यह तुम्हें यह देखने और जानने में सहायता प्रदान करता है कि तुम ठीक-ठीक किस बिन्दु पर हो।
यह बुद्ध की बुद्धिमत्ता थी जब उन्होंने कहा था : “मध्यम मार्ग”, न बहुत अधिक यह, न बहुत अधिक वह। न इसमें गिरो, न उसमें गिरो-प्रत्येक वस्तु का थोड़ा-थोड़ा और एक सन्तुलित मार्ग… किन्तु “विशुद्ध”। विशुद्धता और सत्यनिष्ठा एक ही हैं।
संदर्भ : विचार और सूत्र के संदर्भ में
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…