आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें अनुभूति पाने की कुछ क्षमता हो, बाहर से यहाँ आते हैं तब वे यहाँ के वातावरण की गभीर अचञ्चलता तथा शान्ति का अनुभव पाकर भौचक्के रह जाते हैं, बाद में जब साधकों से उनका मेल-जोल हो जाता है तब बहुत बार उनकी धारणा और वह प्रभाव धुंधला-सा पड़ जाता है, क्योंकि बहुधा साधकों के वातावरण की उदासी या चञ्चलता के वे शिकार हो जाते हैं। हाँ, अगर वे श्रीमाँ के प्रति उद्घाटित रहें-जैसा कि
उन्हें होना चाहिये-तब वे उसी अचञ्चलता तथा शान्ति में रहेंगे, उदासी या चञ्चलता उन्हें छू तक न पायेगी।
संदर्भ : श्रीअरविंद अपने विषय में
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…
देशभक्ति की भावनाएँ हमारे योग की विरोधी बिलकुल नहीं है, बल्कि अपनी मातृभूमि की शक्ति…
जो लोग नव युग में मानवता के भविष्य की सबसे अधिक सहायता करेंगे वे वही…