… हस्तक्षेप न करना सदा ही अधिक बुद्धिमानी की बात है-लोग बिना किसी तुक या कारण के हस्तक्षेप करते हैं, केवल इसलिए कि दूसरों को सलाह देने की उनकी आदत होती है।
तुम्हें चाहे सच्ची वस्तु की अन्तरानुभूति हो, फिर भी हस्तक्षेप करना विरले ही बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जायेगा। ऐसा करना अनिवार्य केवल तब होता है जब कोई किसी ऐसे काम को करना चाहे जिसका अन्त आवश्यक रूप में किसी विपत्तिजनक हो। तब भी हस्तक्षेप (माताजी मुस्कराती हैं) सदा फलप्रद नहीं होता।
वास्तव में, हस्तक्षेप करना केवल तभी ठीक होता है जब व्यक्ति को यह पूर्ण निश्चय हो जाये कि उसने सत्य को देख लिया है। केवल इतना ही नहीं, उसे परिणामों का स्पष्ट दर्शन भी हो जाये। दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप करने के लिए व्यक्ति को मसीहा होना होगा-हाँ, मसीहा, एक ऐसा मसीहा जिसमें बस हितैषिता और करुणा हो। तम्हें उन परिणामों की अन्तरानुभूति भी होनी चाहिये जिनका प्रभाव तुम्हारे हस्तक्षेप के द्वारा दूसरे के भाग्य पर होगा। लोग सदा सलाह देने को उत्सुक रहते हैं : “यह करो, वह मत करो”, मैं यह देख रही हूँ; उन्हें इस बात की कल्पना भी नहीं है कि किस हद तक वे गड़बड़ पैदा कर देते हैं। वे गड़बड़ को, अव्यवस्था को बढ़ा देते हैं। और कभी-कभी वे व्यक्ति के स्वाभाविक विकास को भी हानि पहुँचाते हैं।
मैं सलाहों को सदा ही ख़तरनाक समझती हूँ और प्रायः ही बिलकुल निरर्थक। तुम्हें दूसरों की बातों में टाँग नहीं अड़ानी चाहिये, जब तक कि, सबसे पहले, तुम दूसरे से असीम रूप में अधिक बुद्धिमान् न होओ -स्वभावतया, व्यक्ति हमेशा अपने-आपको अधिक बुद्धिमान् मानता है ! -किन्तु मेरा मतलब यहाँ निष्पक्ष रूप से है, अपने मत से नहीं, जब तक कि तुम उससे अधिक अच्छी तरह वस्तुओं को देख नहीं सकते, जब तक तुम स्वयं आवेगों, इच्छाओं, अन्ध प्रतिक्रियाओं से ऊपर नहीं उठ जाते। तुम्हें स्वयं इन सभी वस्तुओं से ऊपर उठना होगा, केवल तभी तुम्हें किसी दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार हो सकता है-भले ही वह तुमसे इसकी मांग करे । और जब वह तुमसे इसकी माँग ही नहीं करता तो केवल एक ऐसी वस्तु में टाँग अड़ाने के समान हुआ जिससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
संदर्भ : विचार और सूत्र के संदर्भ में
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