दुख का कारण


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

यह एक तथ्य है कि जब कोई मार्ग पर समय नष्ट न करने का भरसक प्रयत्न करता है तो जो भी समय नष्ट होता है वह एक दुःख बन जाता है और उसमें उसे किसी प्रकार का सुख नहीं प्राप्त हो सकता। और जब एक बार तुम उस स्थिति में आ जाते हो, जब एक बार प्रगति और रूपान्तर का यह प्रयास तुम्हारे जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन जाता है, ऐसी चीज़ बन जाता है जिस पर तुम निरन्तर विचार करते रहते हो, तब, निस्सन्देह, तुम शाश्वत जीवन, अपनी सत्ता का सत्य पाने के पथ पर आ जाते हो।

निश्चय ही, आन्तरिक प्रगति की धारा में एक क्षण ऐसा आता है जब तुम एकाग्र होने के लिए, सत्य को पाने और उसे उत्तम रूप में अभिव्यक्त करने की खोज करने और उसी का चिन्तन करने में संलग्न होने के लिए -जिसे बौद्ध लोग ध्यान कहते हैं-बिलकुल प्रयास नहीं करते और, उसके विपरीत, तुम एक प्रकार की राहत, चैन, आराम, सुख अनुभव करते हो; तथा उसके बाहर आकर उन चीज़ों में व्यस्त होना जो बिलकुल आवश्यक नहीं हैं, जो सब समय का अपव्यय जैसी प्रतीत होती हैं, भयंकर दुःखदायी प्रतीत होता है। उस समय बाहरी क्रियाएँ बस उतनी ही रह जाती है जो एकदम आवश्यक होती हैं, बस, वे ही रह जाती हैं जो भगवान की सेवा के रूप में की जाती हैं। जो कुछ निःसार, अनुपयोगी होता है, जो कुछ निश्चित रूप से समय और शक्ति के अपव्यय जैसा प्रतीत होता है वह
सब-ज़रा भी सन्तोष देने की बात तो दूर-एक प्रकार की बेचैनी और थकान उत्पन्न कर देता है; तुम बस उसी समय प्रसन्न रहते हो जब अपने लक्ष्य पर केन्द्रित होते हो।

उस समय यह कहा जा सकता है कि तुम सचमुच अपने पथ पर हो।

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१


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