स्वयं को ब्रह्मांड की अंतिम सीमाओं और उससे भी आगे तक फैला दो।
स्वयं के ऊपर ले लो विकास की सारी अवश्यकताएँ और उन्हें एकत्व के तीव्र आनंद में गला दो। और तब तुम दिव्यत्व ही हो जाओगें।
संदर्भ : श्रीमाँ का एजेंडा (भाग-१)
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