..अब एक छोटा-सा इलाज है जो बहुत सरल है, क्योंकि यह सहज बुद्धि के एक छोटे-से निजी प्रश्न पर आधारित है….। तुम्हें जरा अवलोकन करना चाहिये और कहना चाहिये कि जब तुम डरते हो तो मानों तुम्हारा डर उस चीज को खींच रहा है जिससे तुम डरते हो। अगर तुम बीमारी से डरते हो तो मानों तुम बीमारी को खींचते हो। अगर तुम किसी दुर्घटना से डरते हो तो मानों तुम दुर्घटना को आकर्षित करते हो। और अगर तुम अपने अन्दर और अपने चारों ओर जरा नजर डालो तो तुम यह जान लोगे, यह एक अटल सत्य है। तो अगर तुम्हारे अन्दर जरा भी सहज बुद्धि है तो तुम कहोगे : “किसी चीज से डरना मूर्खता है। यह तो ठीक वैसा है मानों में उसे अपने पास आने के लिए इशारा कर रहा हूं। अगर मेरा कोई दुश्मन होता जो मेरी हत्या करना चाहता तो मैं जाकर उससे यह न कहता : ‘जानते हो, मैं ही हूं जिसकी तुम हत्या करना चाहते हो।'” यह कुछ वैसी ही बात है। इसलिए, चूंकि डर बुरा है इसलिए हम उसे न रखेंगे। अगर तुम यह कहो कि तुम उसे तर्क करके रोक नहीं सकते तो इससे यह प्रकट होता है कि तुम्हें अपने ऊपर अधिकार नहीं है और तुम्हें अपने-आपको वश में करने के लिए कुछ प्रयास करना चाहिये। बस यही है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५३
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…