ठाठ-बाट क्रमशः कम होने लगा


अदालत जहां श्रीअरविंद का मुकदमा चला

पन्द्रह-सोलह दिन की बन्दी अवस्था के बाद स्वाधीन मनुष्य-जीवन का संसर्ग और एक-दूसरे का मुख देख दूसरे कैदी अत्यन्त आनन्दित हुए ।गाडी में चढ़ते ही उनकी हँसी और बातों का फव्वारा फूट पड़ता और जो दस मिनट उन्हें गाड़ी में मिलते थे उसमें पल-भर को भी वह स्रोत न थमता। पहले  दिन हमें खुब सम्मान के साथ अदालत ले गये। हमारे साथ ही थी यूरोपीयन साजेंटों की छोटी पलटन और उनके साथ थीं गोलीभरी पिस्तोलें। गाड़ी में चढ़ते समय सशस्त्र पुलिस की एक टुकड़ी हमें घेरे रहती और गाड़ी के पीछे परेड करती, उतरते समय भी यही आयोजन था। इस साज-सज्जा को देख किसी-किसी अनभिज्ञ दर्शक ने निश्चय ही यह सोचा होगा कि ये हास्य-प्रिय अल्पवयस्क लड़के न जाने कितने दुःसाहसी विख्यात महायोद्धाओं का दल हैं। न जाने उनके प्राणों और शरीर में कितना साहस और बल है जो ख़ाली हाथ सौ पुलिस और गोरों की दुर्भद्य प्राचीर भेद, पलायन करने में सक्षम हैं। इसीलिए शायद उन्हें इतने सम्मान के साथ इस तरह ले गये। कुछ दिन यह ठाठ चला, फिर क्रमशः कम होने लगा, अन्त में दो-चार सार्जेंट हमें ले जाते और ले आते। उतरते समय वे ज़्यादा ख़याल नहीं करते थे कि हम कैसे जेल में घुसते हैं; हम मानों स्वाधीन भाव से घूम-फिर कर घर लौट रहे हों, उसी तरह जेल में घुसते। ऐसी असावधानी और शिथिलता देख पुलिस कमिश्नर साहब और कुछ सुपरिंटेंडेंट क्रुद्ध हो बोले, “पहले दिन पचीस-तीस सार्जेंटों की व्यवस्था की गयी थी, आजकल देखता हूँ चार-पाँच भी नहीं आते।” वे सार्जेंटों की भर्त्सना करते और रक्षण-निरीक्षण की कठोर व्यवस्था करते; उसके बाद दो-एक दिन और दो सार्जेंट आते और फिर वही पहले जैसी शिथिलता आरम्भ हो जाती! साजेंटों ने देखा कि बम-भक्त बड़े निरीह और शान्त लोग हैं, पलायन में उनका कोई प्रयास नहीं, किसी पर आक्रमण करने या हत्या करने की भी मंशा नहीं, उन्होंने सोचा कि हम क्यों अपना अमूल्य समय इस विरक्तिकर कार्य में नष्ट करें। पहले अदालत में घुसते और निकलते समय हमारी तलाशी लेते थे, उससे हम सार्जेंटों के कोमल करस्पर्श का सुख अनुभव करते, इसके अलावा इस तलाशी से किसी के लाभ या क्षति की सम्भावना नहीं थी। स्पष्ट था कि इस तलाशी की आवश्यकता में हमारे रक्षकों की गभीर अनास्था है। दो-चार दिन बाद यह भी बन्द हो गयी। हम अदालत में किताब, रोटी-चीनी जो इच्छा हो निर्विघ्न ले जाते। पहले-पहल छिपा कर, बाद में खुले आम। हम बम या पिस्तौल चलायेंगे, उनका यह विश्वास शीघ्र ही उठ गया। किन्तु मैंने देखा कि एक भय साजेंटों के मन से नहीं गया। कौन जाने किसके मन में कब मजिस्ट्रेट साहब के महिमान्वित मस्तक पर जूते फेंकने की बदनीयत पैदा हो जाये, ऐसा हुआ तो सर्वनाश। अतः जूते भीतर ले जाना विशेषतया निषिद्ध था, और उस विषय में सार्जेंट हमेशा सतर्क रहते। और किसी तरह की सावधानता के
प्रति आग्रह नहीं देखा।

 

संदर्भ : कारावास की कहानी


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