…. जब तुम अच्छे हो, जब तुम उदार हो, महान, निःस्वार्थ और परोपकारी हो तो तुम अपने अन्दर, अपने चारों ओर एक वातावरण उत्पन्न करते हो और यह वातावरण एक प्रकार की ज्योतिर्मयी शान्ति की तरह होता है। तुम सूर्य की रोशनी में एक फूल की तरह साँस लेते हो और विकसित होते हो, और कटुता, विद्रोह और सन्ताप में अपनी ओर मुड़ने की दुःखद अवस्था में नहीं लौटते। सहज, स्वाभाविक रूप में, वातावरण ज्योतिर्मय बन जाता है। और जो हवा तुम साँस में लेते हो वह आनन्द से भरी होती है। बस, तुम इसी हवा को साँस में लेते हो जब शरीर में रहते हो या शरीर से बाहर, जाग्रत् अवस्था में होते हो या नींद की अवस्था में, जीवन में होते हो या जीवन से बाहर चले जाते हो, पार्थिव जीवन से
बाहर, जब तक तुम नया जीवन नहीं प्राप्त कर लेते।
सभी दोषपूर्ण कार्य चेतना पर उस हवा के जैसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं जो सुखा देती है, उस ठण्डक के जैसा प्रभाव डालते हैं जो जमा देती है, अथवा उस जलती लौ के जैसा प्रभाव डालते हैं जो जला कर भस्म कर देती है।
सभी अच्छे और सौजन्यपूर्ण कार्य ज्योति, विश्रान्ति और आनन्द प्रदान करते हैं-सूर्य का वह प्रकाश ले आते हैं जिसमें फूल खिलते हैं।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१
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