गुरु में विश्वास

आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक से पूरी तरह लाभ उठाने के लिए शिष्य को तीन शर्तों  को निभाना होता है।

पहली: उसे किसी भी विरोधी या किसी भी दूसरे के प्रभाव की अधीनता स्वीकार किये बिना, केवल और पूरी तरह सिर्फ अपने गुरु को ही स्वीकारना चाहिये।

दूसरी : अपने गुरु के द्वारा दिये गये संकेतों को उसे स्वीकारना चाहिये और अपनी आध्यात्मिक क्षमता के द्वारा सर्वोत्तम रूप से, पूरी श्रद्धा तथा लगन के साथ उनका अनुसरण करना चाहिये।

तीसरी : उसे स्वयं को उद्घाटित करना होगा, ग्रहणशील बनना होगा, ताकि गुरु उसके अन्दर की आध्यात्मिक चेतना, ज्ञान, प्रकाश, शक्ति को
विकसित कर सकें और वह उन गुणों के प्रति सचेतन बन कर उन्हें प्रकट कर सके। गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान के द्वारा साधक को अपनी चेतना
तथा अपने अन्दर की दिव्य प्रकृति तथा सम्भावना को बढ़ाना होगा ताकि वह दिव्यता के चरण पखार सके।

गुरु साधक के लिए जो कर सकते हैं वह किसी तरीके, नियम या साधना पर नहीं बल्कि साधक की ग्रहणशीलता पर निर्भर करता है। साधक की चेतना की कुछ आन्तरिक अवस्थाएं या मनोवृत्तियां ग्रहणशीलता को बढ़ा सकती हैं-उदाहरण के लिए, गुरु के प्रति विनम्रता, भक्ति, आज्ञाकारिता.
विश्वास, उनके प्रभाव के प्रति सकारात्मक ग्रहणशीलता। इनसे उलटी चीजें है-स्वच्छन्दता, छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति, केवल सन्देहास्पद प्रश्नों की बौछार,
यानी, उनके बताये मार्ग पर न चलना और गुरु के लिए यह अनिवार्य बना देना कि वे केवल अप्रत्यक्ष रूप में या परदे के पीछे से ही सहायता करें।

लेकिन मुख्य चीज है कि साधक की चेतना में एक तरह का आन्तरिक उद्घाटन हो जाये और वह होता है या उसे विकसित किया जा सकता है।
उसे पाने के संकल्प तथा सही मनोभाव के अपनाने से ही। अगर वह हो तो गुरु से कुछ खींचने की आवश्यकता नहीं होती, बस चुपचाप उनसे
ग्रहण करना होता है।

सन्दर्भ : श्रीअरविन्द के पत्र

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