क्या बाहरी जीवन, प्रतिदिन और प्रतिक्षण की क्रियाशीलता हमारे ध्यान और निदिध्यासन के घण्टों का अनिवार्य पूरक नहीं है? और क्या हर एक को दिये गये समय का अनुपात उस अनुपात का ठीक चित्र नहीं है जो तैयारी के लिए किये गये प्रयास और उपलब्धि के बीच है? क्योंकि ध्यान, निदिध्यासन और ‘ऐक्य’ प्राप्त परिणाम है-वह फल है जो खिला है और दैनिक क्रिया-कलाप वह निहाई है जिस पर सभी तत्त्वों को शुद्ध और परिष्कृत होने के लिए बार-बार गुजरना होता है, निदिध्यासन से मिलने वाले आलोक के लिए उन्हें नमनीय और परिपक्व बनाना होता है। इससे पहले कि बाह्य क्रिया-कलाप पूर्ण विकास के लिए अनावश्यक बने, इन सब तत्त्वों को एक के बाद एक करके कुठाली में से गुजरना होगा।
तब यह क्रियाशीलता तुझे अभिव्यक्त करने के साधन में बदल जायेगी ताकि चेतना के अन्य केन्द्रों को भट्टी और प्रदीप्ति के समान दोहरे कार्य के लिए जगाया जा सके। इसीलिए घमण्ड और आत्मसन्तोष सबसे बुरी बाधाएं हैं। हमें बड़े विनीत भाव से अगणित तत्त्वों में से कुछ को गूंधने और शुद्ध बनाने के छोटे-से-छोटे अवसर का लाभ उठाना चाहिये ताकि उनमें से कुछ को हम सुनम्य और निर्वैयक्तिक बना सकें, उन्हें अपनेआपको भूलना, आत्म-त्याग, भक्ति, कोमलता और सौम्यता सिखा सकें
और जब सत्ता के ये सब तरीके अभ्यासगत हो जायें तो मनन-चिन्तन में भाग लेने के लिए और तेरे साथ परम एकाग्रता में एक होने के लिए वे तैयार होते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि सबसे अच्छों के लिए भी काम लम्बा और धीमा होगा और असाधारण परिवर्तन सर्वांगीण नहीं हो सकते।
वे सत्ता के दिग्विन्यास को बदल देते हैं, वे उसे निश्चित रूप से सीधे रास्ते पर ले आते हैं, परन्तु सचमुच लक्ष्य पाने के लिए कोई भी व्यक्ति हर क्षण, हर तरह की अनगिनत अनुभूतियों से नहीं बच सकता।
… हे परमोच्च प्रभो, जो मेरी सत्ता में और हर चीज में चमकता है, वर दे कि तेरा प्रकाश अभिव्यक्त हो और सबके लिए तेरी शान्ति का राज्य आये।
संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान
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