… हमें एक प्रमुख विचार पर, हमारी सत्ता के स्वामी, हमारे तथा जगत् में व्याप्त ईश्वर, सर्वोच्च आत्मन्, विश्वव्यापी आत्मा के प्रति आत्म-समर्पण पर, एकनिष्ठ रूप से डटे रहना होगा। इस उत्कृष्ट विचार में निमग्न बुद्धि को इसके अपने ही लघु आग्रहों व प्राथमिकताओं को हतोत्साहित करना होगा और सम्पूर्ण सत्ता को यह सिखाना होगा कि अहंकार चाहे तर्कणा, व्यक्तिगत संकल्प, हृदय अथवा प्राणस्थित कामनात्मा के माध्यम से कितना भी अपना दावा पेश करे, उसका दावा किसी तरह से भी यथोचित नहीं है और शोक, विद्रोह, बेचैनी, कष्ट-यह सब सत्ता के स्वामी के प्रति अपमान है।
संदर्भ : योग समन्वय
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…
देशभक्ति की भावनाएँ हमारे योग की विरोधी बिलकुल नहीं है, बल्कि अपनी मातृभूमि की शक्ति…