… जिस क्षण तुम यह कल्पना करते और किसी-न-किसी तरह अनुभव करते हो, या , प्रारम्भ में, इतना मान भी लेते हो कि भगवान् तुम्हारें अन्दर हैं और साथ ही तुम भगवान् के अन्दर हो, उसी उसी क्षण उपलब्धि का दरवाजा खुल जाता है, जरा-सा, बहुत नहीं -बस, थोडा-सा। उसके बाद यदि अभीप्सा आती है, जानने और होने की तीव्र आवश्यकता अनुभव होती है, तो वह तीव्र आवश्यकता खुले भाग को चौड़ा कर देती है, यहां तक कि तुम उसमें रेंग कर जा सकते हो । जब तुम उस में घुस जाओ, तो तुम्हें पता लगता है कि तुम क्या हो ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५५
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…