जीवनयात्रा में समस्त भय, संकट और विपदा का सामना करने के लिए कवच के रूप में तुम्हारे पास केवल दो ही चीजों का होना आवश्यक है, पहली है दिव्य मां की कृपा और दूसरी है एक ऐसी आन्तरिक स्थिति अपनाना जो श्रद्धा, निष्कपटता और समर्पण से भरपूर हो। अपनी श्रद्धा को पवित्र, निश्छल तथा पूर्ण बनाओ मानसिक तथा प्राणिक सत्ता की ऐसी अहंकारमयी श्रद्धा जो आकांक्षा, अभिमान, दम्भ, मानसिक अक्खडता प्राणिक स्वैरता, व्यक्तिगत मांग, निम्न प्रकृति की तुच्छ कामनाओं की पूर्ति
में लगी रहती है, वह निम्न प्रकार की तथा धुएं से भरी श्रद्धा होती है जो ऊपर स्वर्ग की ओर प्रज्वलित नहीं हो सकती। अपने जीवन को इस रूप में देखो कि वह तुम्हें केवल दिव्य कर्म करने और दिव्य अभिव्यक्ति में सहायता देने के लिए मिला है। केवल भागवत चेतना की पवित्रता, शक्ति, प्रकाश, विस्तार, अचञ्चलता तथा आनन्द की कामना करो और तम्हारे अन्दर यह आग्रह हो कि ये भागवत चीजें तुम्हारे मन, प्राण और शरीर को रूपान्तरित और पूर्ण कर दें। मांगो केवल भागवत, आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक सत्य को; यह मांगो कि पृथ्वी पर, स्वयं तुम्हारे अन्दर और उन सभी में उस परम सत्य की उपलब्धि हो जो भागवत कार्य के लिए चुने गये हैं, और यह मांगो कि इस सत्य के प्रकट होने के लिए पृथ्वी पर आवश्यक परिस्थितियां पैदा हो जायें और यह सत्य सभी विरोधी शक्तियों पर विजय पा ले।
तुम्हारी निष्कपटता और समर्पण सच्चे तथा पूर्ण हों। अपने-आपको निःशेष रूप से, बिना मांग, बिना शर्त, बिना संकोच के दे डालो ताकि तुम्हारे अन्दर का सब कुछ उन दिव्य मां का हो जाये, अपने अहं या अन्य किसी शक्ति के लिए कुछ भी बचा कर न रखो। तुम्हारी श्रद्धा, निष्कपटता तथा समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे कृपा तथा सुरक्षा भी उसी हद तक तुम्हारे साथ रहेंगी। और जब दिव्य मां की कृपा तथा सुरक्षा तुम्हारे साथ हों तो कौन है जो तुम्हारा स्पर्श कर सके या कोन है जिससे तुम भयभीत होओ? उनकी कृपा तथा सुरक्षा का जरासा अंश भी तुम्हें सभी मुश्किलों, बाधाओं तथा खतरों से पार ले जायेगा: उनकी कृपा तथा सुरक्षा की पूर्ण उपस्थिति से घिरे हुए तुम अपने पथ पर निरापद आगे बढ़ सकते हो क्योंकि वह पथ मां का है, वह सभी संकटों से अछूता है, सभी प्रतिकूलताओं और विद्वेषों के परे है-वे विद्वेष चाहे जितने शक्तिशाली क्यों न हों, चाहे वे इस जगत् के हों या अदृश्य जगतों के। मां का स्पर्श कठिनाइयों को सुअवसरों में, असफलता को सफलता में और दुर्बलता को अडिग बल में बदल सकता है। क्योंकि दिव्य जननी की कृपा परम प्रभु की अनुमति है और आज या कल उसका फल निश्चित है। वह कृपा बरसेगी यह पूर्वनिर्दिष्ट, अवश्यम्भावी और अप्रतिरोध्य तथ्य है।
संदर्भ : माताजी के विषय में
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