आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों, मिथ्या व्याख्याओं, यहां तक कि स्थूल अन्वेषणों से मिश्रित, विश्वव्यापी रोगों में से एक है। यह प्राण का एक रोग है जिसमें भौतिक मन सहायता करता है और प्राण की इस ऊसर तथा हानिकारक खोज द्वारा प्राप्त सुख का यन्त्र बन जाता है। यदि आन्तरिक अनुभूति का बाहरी जीवन में कोई सच्चा रूपान्तरकारी प्रभाव लाना हो तो वाणी का नियन्त्रण तथा प्राण के इस रोग तथा खुजली की अस्वीकृति अत्यन्त आवश्यक है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को…
प्रेम और स्नेह की प्यास मानव आवश्यकता है, परंतु वह तभी शांत हो सकती है…
पत्थर अनिश्चित काल तक शक्तियों को सञ्चित रख सकता है। ऐसे पत्थर हैं जो सम्पर्क की…