जैसे-जैसे व्यक्ति विकसित होता है, वह आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर बढ़ता रहता है। किन्तु यह स्वाधीनता ऐसी चीज नहीं है जो सर्व-सत्ता से पूर्ण रूप से पृथक् हो। इसके साथ इसकी एकता इसलिए है कि वह भी आत्मा है, वही आत्मा। जैसे-जैसे वह आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर बढ़ता है, वह आध्यात्मिक एकत्व की ओर भी बढ़ता है। आध्यात्मिक सिद्धि-प्राप्त व्यक्ति, मुक्त पुरुष, गीता कहती है, सभी प्राणियों के कल्याण में व्यस्त रहता है। बुद्ध को निर्वाण-पथ की खोज के बाद उन लोगों के लिए पथ को खोलने वापस आना पड़ा जो अभी भी अपने वास्तविक सत् अथवा असत् के बदले अपनी रचनात्मक सत्ता की भ्रान्ति में पड़े हैं।
विवेकानन्द परम सत्ता द्वारा आकर्षित होकर भी मानवता के छद्मवेश में छिपे भगवान् की पुकार को अनुभव करते हैं और सबसे अधिक पतित और पीड़ित लोगों की पुकार को, विश्व के अन्धकारमय शरीर में आत्मा की पुकार को सुनते हैं।
संदर्भ : श्रीअरविंद अपने विषय में
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…
देशभक्ति की भावनाएँ हमारे योग की विरोधी बिलकुल नहीं है, बल्कि अपनी मातृभूमि की शक्ति…