भगवान् केवल इस बात की प्रतीक्षा में हैं कि उनका ज्ञान प्राप्त किया जाये, जब कि मनुष्य उन्हें सर्वत्र अपने लिए खोजता है तथा उनकी मूर्तियां गढ़ता हुआ वास्तव में व्यावहारिक रूप में केवल अपने को पाता, मन और प्राणरूपी अहं की मूर्तियां खड़ी करता, उनकी स्थापना और पूजा करता है। जब अहंरूपी इस धुरी को त्याग दिया जाता है और इस अहं का पीछा करना छोड़ दिया जाता है, तभी मनुष्य को अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन में आध्यात्मिकता प्राप्त करने का पहला और वास्तविक अवसर मिलता है। यह काफी नहीं है, पर यह एक आरम्भ अवश्य है; यह एक सच्चा द्वार होगा-बन्द-मार्ग नहीं।…
आध्यात्मिक मनुष्य जिसकी खोज करता है वह है, अहं का त्याग करके उस आत्म-सत्ता को पाना जो सबमें एक है, पूर्ण तथा समग्र है, और उसी के अन्दर जीते हुए उसकी पूर्णता के प्रारूप में विकसित होना, पर यह ध्यान रखना है कि इसे वैयक्तिक रूप में ही करना है-यद्यपि सबको आलिंगन में लेती हुई उसकी अपनी व्यापकता तथा उसकी चेतना की परिधि के साथ।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१५)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…