अविश्वासी मन सर्वदा संदेह करता है, क्योंकि वह समझ नहीं सकता; परन्तु भगवत्-प्रेमी का विश्वास जानने के लिये आग्रह करता है यद्यपि समझ नहीं पाता। हमारे अन्धकार के लिये ये दोनों ही आवश्यक हैं। परन्तु इस विषय में कोई सन्देह नहीं कि उन दोनों में से अधिक शक्तिशाली कौन है। जिसे मै अभी नहीं समझ पाता उसे किसी दिन आयत्त कर लूंगा, पर यदि मैं विश्वास और प्रेम को ही खो बेठूँ तो एकदम उस लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाऊंगा जिसे भगवान् ने मेरे सामने रखा है।
संदर्भ : विचार और सूत्र
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…