साधना-पथ पर अवसाद, अन्धकार और निराशा के दौरों की एक परम्परा-सी चली आती है। ऐसा लगता है कि ये पूर्वी या पश्चिमी सभी योगों के नियत अंग-से रहे हैं। मैं स्वयं इनके विषय में सब कुछ जानता हूं, परन्तु अपने अनुभव के द्वारा मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि ये अनावश्यक परम्परा हैं तथा यदि कोई चाहे तो इनसे बच सकता है। यही कारण है कि जब कभी ये तुम्हारे अन्दर या दूसरों में आते हैं तो मैं उनके सामने श्रद्धा का मन्त्र उद्घोषित करने का यत्न करता हूं। यदि ये फिर भी आयें तो मनुष्य को उन्हें यथासम्भव शीघ्र-से-शीघ्र पार करके पुनः प्रकाश में वापस आ जाना
चाहिये।
संदर्भ : श्रीअरविंद अपने विषय में
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मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…