अवतार का बाहरी कार्य

यह जगत जिस संघर्ष की रंगभूमि है गीता उसके दो पहलुओं पर जोर देती है, एक है आन्तरिक संघर्ष, दूसरा बाह्य युद्ध। आन्तरिक संघर्ष में शत्रुओं का दल अन्दर, व्यक्ति के अपने अन्दर है, और इसमें कामना, अज्ञान और अहंकार को मारना ही विजय है। पर मानव-समूह के अन्दर धर्म और अधर्म की शक्तियों के बीच एक बाह्य युद्ध भी चल रहा है। भगवान, मनुष्य की देवोपम प्रकृति और उसे मानव-जीवन में सिद्ध करने का प्रयास करने वाली शक्तियां धर्म की सहायता करती हैं। उद्दण्ड अहंकार ही जिनका अग्रभाग है ऐसी आसुरी या राक्षसी प्रकृति, अहंकार के प्रतिनिधि और उसे सन्तुष्ट करने का प्रयास करने वालों को साथ लेकर अधर्म की सहायता करती है। यही देवासुर-संग्राम है जो प्रतीक-रूप से प्राचीन भारतीय साहित्य में भरा है। महाभारत के महायुद्ध को, जिसमें मुख्य सूत्रधार श्रीकृष्ण है, प्रायः इसी देवासुर-संग्राम का एक रूपक कहा जाता है; पाण्डव, जो धर्मराज्य की स्थापना के लिए लड़ रहे हैं, देवपुत्र हैं, मानवरूप में देवताओं की शक्तियां हैं और उनके शत्रु आसुरी शक्ति के अवतार हैं, असुर हैं। इस बाह्य संग्राम में भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने, असुरों अर्थात् दुष्टों का राज्य नष्ट करने, उन्हें चलाने वाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के पीड़ित आदर्शों को पुनः स्थापित करने के लिए भगवान् अवतार लिया करते हैं। व्यष्टिगत मानव-पुरुष में स्वर्ग के राज्य का निर्माण करना जैसे भगवान् के अवतार का उद्देश्य होता है वैसे ही मानव-समष्टि के लिए भी स्वर्ग के राज्य को पृथ्वी के निकटतर ले आना उनका उद्देश्य होता है।

 

सन्दर्भ : गीता प्रबंध

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